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नव पदार्थ
आगमिक वाक्यों के आधार पर स्वामीजी ने कहा है-जीव अपने मिथ्यात्वादि भावों से कर्मों का कर्ता है।
स्वामीजी कहते हैं-आगमों के अनुसार आस्रव का अर्थ है-कर्म आने के द्वार । मिथ्यात्व-अच्छे को बुरा जानना, बुरे को अच्छा जानना-पहला द्वार है। इसी तरह अविरति आदि अन्य द्वार हैं। ये द्वार जीव के होते हैं। जीव के मिथ्यात्वादि पाँच द्वारों को ही आस्रव कहा है। कर्मों को आस्रव नहीं कहा है। अतः आस्रव और कर्म भिन्न हैं।
आस्रव जीव-द्वार हैं, कर्म उनसे प्रविष्ट होने वाली वस्तु । द्वारों से जो आते हैं वे कर्म हैं और द्वार जीव के अध्यवसाय । द्वार कर्म भिन्न-भिन्न हैं। जीव के अध्यवसाय–परिणाम आस्रव चेतन और अरूपी हैं। आने वाले पुण्य-पाप पौद्गलिक और रूपी हैं।
जीव रूपी तालाब के आस्रव रूपी नाले हैं। जल रूप पुण्य-पाप है। आस्रव जल रूप नहीं; पुण्य-पाप जल रूप हैं। नावों के छिद्र की तरह जीव के मिथ्यात्वादि आस्रव हैं। आस्रव जल रूप नहीं; कर्म जल रूप हैं | जीव रूपी नाव है; आस्रव रूपी छिद्र है और कर्म रूपी जल है। इस तरह कर्म और आस्रव भिन्न हैं।
४२. मोहकर्म के उदय से होनेवाले सावध कार्य योगास्रव हैं (गा० ६२-६५) : ..
___ स्वामीजी अन्यत्र लिखते हैं-"नवो पाप तो मिथ्यात्व अव्रत प्रमाद कषाय माठा जोग बिना न बंधे । ए सर्व मोहनीय कर्म ना उदै सूं नीपजै छै और कर्म ना उदय सूं नीपजे नहीं।. . . .सावध कार्य करे ते मोहना उदै सूं। . . . .भाव निद्रा सूतां कर्म बंधे छै ते तो अत्याग भाव छै। मोहनी ना उदय सूं छै । ज्ञानावर्णीय थी ज्ञान दबै । दर्शनावर्णी थी दर्शन दबै । वेदनीय थी शाता अशाता भोगवै। आयु थी आयुष्य भोगवै। गोत्र कर्म थी गोत्र भोगवै । अंतराय थी चावै ते वस्तु न मिलै । इम छव कर्म ना उदै सूं नवा कर्म न बंधे । अने नाम कर्म ना उदै थी सुभ योग सूं पुन्य बंधे छै पिण पाप न बंधे। पाप तो एक मोहनीय कर्म ना उदै सूं बंधे छै ।
मोहनीय कर्म के दो भेद हैं जिन में एक चारित्रमोहनीय है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से जीव सावद्य कार्यों से अपना बचाव नहीं कर सकता और उन में प्रवृत्ति करने
१. ३०६ बोल की हुण्डी : बोल १४६-१५० २. वही : बोल १५२, १५३, १५४ ३. वही : बोल ६६