SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१८ नव पदार्थ पूर्वक कंपन आदि नहीं करता और उन-उन भावों में परिणमन नहीं करता।" ___“हे भगवन् ! क्या जीव के अन्त में-मृत्यु के समय-अंतक्रिया होती है-कर्मों का सम्पूर्ण अन्त होता है ? "हे मण्डितपुत्र ! जब तक जीव सदा प्रमाणपूर्वक कंपनादि करता और उन-उन भावों में परिणमन करता है तब तक वह जीवों का आरंभ, सरंभ और समारंभ करता और उनमें लगा रहता है। ऐसा करता हुआ वह जीव अनेक प्राणी, भूत और सत्त्वों को दुःख, शोक, जीर्णता, अश्रुविलाप, मार और परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त रहता है अतः उसके मृत्यु समय में अन्तक्रिया नहीं होती। जो जीव प्रमाणपूर्वक कंपन आदि नहीं करता वह आरम्भ, सरंभ और समारंभ में लगा हुआ नहीं होता और किसी प्राणी को दुःख आदि उत्पन्न करने में प्रवृत्त नहीं होता अतः उसको मृत्यु समय में अन्तक्रिया होती है।" "हे भगवन् ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थों को क्रिया होती है ?" "हे मण्डितपुत्र ! प्रमादप्रत्यय (प्रमाद के कारण) और योग (मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के) निमित्त से श्रमणनिर्ग्रथों को भी क्रिया होती है।" “हे मण्डितपुत्र ! इसी तरह आत्मा द्वारा आत्मा से संवृत, इर्यासमित यावत् गुप्त ब्रह्मचारी, उपयोगपूर्वक गमन करने वाले यावत् आँख की उन्मेष तथा निमेष क्रिया भी उपयोगपूर्वक करनेवाले अनगार के विमात्रा में सूक्ष्म ईर्यापथिकी क्रिया होती है। यह ईर्यापथिकी क्रिया प्रथम समय में बद्धस्पृष्ट, दूसरे समय में वेदी (भोगी) हुई और तीसरे समय में निर्जरा को प्राप्त हो जाती है। बद्धस्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जरा को प्राप्त वह क्रिया अकर्मक हो जाती है। इसलिए हे मण्डितपुत्र ! मैं ऐसा कहता हूँ कि जो जीव योग-मन, वचन और काया का निरोध कर सदा प्रमाणपूर्वक कम्पन आदि नहीं करता तथा उन-उन भावों में परिणमन नहीं करता उसको अन्त समय में अन्तक्रिया (कर्मों से सम्पूर्ण निवृत्ति) होती है। इस प्रसंग से स्पष्ट है कि सकंप आत्मा आस्रव है और स्थिरभूत आत्मा संवर । सकंप आत्मा के कर्मों का आस्रव होता रहता है और निष्कंप आत्मा के कर्मों का आस्रव रुक जाता है और अन्त में उसकी मुक्ति होती है। १. भगवती ३.३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy