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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : १) : टिप्पणी ३७ (२) जीव सर्व प्रदेशों से कर्म ग्रहण करता है : पंचसंग्रह में कहा है : "एक प्रदेश में रहे हुए अर्थात् जिस प्रदेश में जीव रहता है उस प्रदेश में रहे हुए कर्म योग्य पुद्गलों का जीव अपने सर्व प्रदेशों द्वारा बन्धन करता है । उसमें हेतु जीव के मिथ्यात्वादि हैं। ऐसा बंधन आदि और अनादि दोनों प्रकार का होता है ।" विशेषावश्यकभाष्य में कहां है : "जीव स्वयं आकाश के जितने प्रदेशो में होता है उतने ही प्रदेशों में रहे हुए पुद्गलों को अपने सर्व प्रदेशों से ग्रहण करता है ।" स्वामीजी ने यही बात गा० ५५ में आगमों के आधार पर कही है। भगवती में कहा है : एकेन्द्रिय व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं। व्याघात होने पर कदाच तीन, कदाच चार और कदाचं पाँच दिशाओं से आए हुए कर्मों को ग्रहण करते हैं। शेष सर्व जीव नियम से छहों दिशाओं से आए हुए कर्मों को ग्रहण करते हैं ।" यही बात उत्तराध्ययन ( ३३.१८) में की गई है : सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि पएसेसुं सव्वं सव्वेण बद्धगं । । ४१७ (३) अस्थिर प्रदेश आस्रव है और स्थिर प्रदेश संवर : भगवती सूत्र में भगवान महावीर और मण्डितपुत्र के बीच हुआ निम्न वार्तालाप-प्रसंग मिलता है : “हे भगवन् ! क्या जीव सदा प्रमाणपूर्वक कंपन करता, विविध रूप से कंपन करता, गमन करता, स्पन्दन करता, स्पर्श करता, क्षोभता, जोर से प्रेरित करता तथा उन-उन भावों में परिणमन करता रहता है ?" "हे मण्डितपुत्र ! जीव सयोगी होता है तो सदा प्रमाणपूर्वक कंपन आदि करता और उन-उन भावों में परिणमन करता रहता है। जब जीव अयोगी होता है तब सदा प्रमाण १. एगपएसोगाढं सव्वपएसेहिं कम्मुणो जोग्गं । बंधई जहुत्तहेउ साइयमणाइयं वावि ।। २८४ ।। २. गेहति तज्जोगं चिय रेणुं पुरिसो जधा कतभंगे । एगक्खेत्तोगाढं जीवो सव्वप्पदेसेहिं ।। १६४१ ।। ३. जो एकेन्द्रिय जीव लोकान्त में होते हैं उनके ऊर्ध्व और आस-पास की दिशाओं से कर्म का आना संभव न होने से ये विकल्प घटते हैं । ४. भगवती १७.४
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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