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________________ आस्त्रव पदार्थ (टाल : १) : टिप्पणी १८ ३६३ स्वामीजी कहते हैं-"भगवान ने यहाँ आस्रवों का प्रतिक्रमण कहा है इसका कारण यही है कि आस्रव पाप-प्रवेश के द्वार हैं।" १८. आस्रव और नौका का दृष्टान्त (गा० २१-२२) : एक वार्तालाप के प्रसंग में भगवान महावीर ने मंडितपुत्र से पूछा : “एक हृद हो, वह जल से पूर्ण हो, जल से छलाछल भरा हो, जल से छलकता हो, जल से बढ़ता हो और भरे हुए घड़े की तरह सब जगह जल से व्याप्त हो, उस हृद में कोई एक मनुष्य सैकड़ों सूक्ष्म छिद्र और सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नाव को प्रविष्ट करे तो हे मण्डितपुत्र ! वह नाव छिद्र द्वारा जल से भराती-भराती जल से भरी हुई, जल से छलाछल भरी हुई, जल से छलकती हुई, जल से बढ़ती हुई अन्त में भरे हुए घड़े की तरह सब जगह जल से व्याप्त होती है यह ठीक है या नहीं ?" मंडितपुत्र बोले : भन्ते ! होती है।" भगवान बोले : "अब यदि कोई पुरुष उस नाव के सारे छिद्रों को ढक दे और उलीच कर उसके सारे जल को बाहर निकाल दे तो हे मंडितपुत्र ! वह नौका सारे पानी को उलीच देने पर शीघ्र ही जल के ऊपर आती है क्या यह ठीक है ?" मंडितपुत्र बोले : “यह सच है भन्ते ! वह ऊपर आती है।" स्वामीजी के कथनानुसार यह वार्तालाप आस्रव और संवर के स्वरूप पर प्रकाश डालता है। आत्मा मिथ्यात्व आदि आस्रवों-छिद्रों द्वारा कर्म रूपी जल से खचाखच भर जाती है। संवर द्वारा आस्रव रूपी छिद्रों को रूंध देने पर पुनः नये कर्मरूपी जल का प्रवेश रुक जाता है। संचित कर्म-जल को तप द्वारा उलीच देने पर आत्मा पुनः कर्म-जल से रिक्त होती है। ऊपर जो वार्तालाप दिया गया है उसका मूल पाठ (भगवती ३.३) इस प्रकार है से जहा नाम ए हरए सिया, पुण्णे, पुण्णप्पमाणे, वोलट्टमाणे, वोसट्टमाणे समभर घडताए चिट्ठइ। अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं णावं सयासवं, सयच्छिदं ओगाहेज्जा, से णूणं मंडिअपुत्ता ! सा नावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, पुण्णा, पुण्णप्पमाणा, वोलट्टमाणा, वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिट्ठति। अहे णं केइ पुरिसे तीसे नावाए सव्वओ समंता आसवदाराइं पिहेइ, पिहित्ता णावा उस्सिंचणएणं उदयं उस्सिचिज्जा, से णूणं मंडिअपत्ता ! सा नावा तंसि उदयंसि उस्सित्तंसि समाणंसि खिप्पामेव उड्ढे उद्दाइ ? हंता, उद्दाइ। भगवती सूत्र का दूसरा वार्तालाप इस प्रकार है : "भन्ते! जीव और पुद्गल अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्प्ष्ट, अन्योन्य स्नेह से प्रतिबद्ध, अन्योन्य अवगाढ़, अन्योन्य घट होकर रहते हैं ?" “हां गौतम ! रहते हैं। "भन्ते ! ऐसा
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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