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________________ आस्त्रव पदार्थ (ढाल : २६. २७. २८. २६. १) जीव और पुद्गल का संयोग होता है। तीसरे द्रव्य - और किसी द्रव्य का संयोग नहीं होता। जीव जब इच्छा कर पुद्गल लगाता है तब ही वे आकर लगते हैं । ३२. इस तरह जो ग्रहण किए हुए पुद्गल हैं, वे ही पुण्य या पाप रूप हैं। इन पुण्य और पाप कर्मों का कर्त्ता खुद जीव ही है और जो कर्त्ता है उसी को आस्रव समझो। इसमें जरा भी शंका मत लाओ । जीव कर्मों का कर्त्ता है। इस सम्बन्ध में सूत्रों में अनेक पाठ मिलते हैं । पहिले अङ्ग में जीव को कर्मों का कर्त्ता कहा है । पहिले अङ्ग के पहिले उद्देश में जीव-स्वरूप का वर्णन आया है । वहाँ पर जीव को तीनों कालों में कर्त्ता बताया गया है । वहाँ जीव को त्रिकरण से कर्त्ता कहा है। ३०. जीव के भले-बुरे परिणाम ही कर्मों के कर्त्ता हैं। ये परिणाम ही आस्रव-द्वार हैं। ये परिणाम जीव के व्यापार हैं। ३१. कर्मों के कर्त्ता, कर्म की करनी, कर्म-ग्रहण के हेतु और उपाय ये चारों ही कर्मों के कर्त्ता कहलाते हैं। इनसे कर्म आकर लगते हैं इसलिए भगवान ने इन्हें आस्रव कहा है। सावध करनी से पाप-कर्म लगते हैं, जिससे भविष्य में जीव को दुःख भोगना पड़ता है। सावध करनी को जो अजीव कहते हैं वे निश्चय ही मिथ्यात्वी जीव हैं । ३३. योग सावद्य और निरवद्य दो तरह के कहे गये हैं। उनकी गिनती जीव द्रव्य में की गई है। इसलिए योग-आत्मा का कथन आया है। योगों को जीव-परिणाम कहा गया है। जीव ही पुद्गलों को लगाता 1 ग्रहण किए हुए पुद्गल ही पुण्य पाप रूप हैं जीव कर्त्ता है (२८-२६) ३५५ जीव अपने परिणामों से कर्त्ता है कर्त्ता, करनी, हेतु उपाय चारों कर्त्ता हैं योग जीव हैं (३२-३४)
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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