________________
३३०
नव पदार्थ
जिस कर्म के उदय से जीव को अमुक गति-भव का जीवन बिताना पड़े उसे आयुष्य-कर्म कहते हैं। इसके अनुभाव चार हैं-नरकायुष्य, तिर्यञ्चायुष्य, मनुष्यायुष्य और देवायुष्य'।
गतियों की अपेक्षा से आयुष्य-कर्म चार प्रकार के हैं :
(१) नरकायुष्य कर्म : जिसका उदय तीव्र शीत और तीव्र उष्ण वेदनावाले नरकों में दीर्घजीवन का निमित्त होता है वह नरकायुष्य-कर्म कहलाता है।
(२) तिर्यञ्चायुष्य कर्म : जिसके उदय से क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण आदि अनेक उपद्रवों के स्थानभूत तिर्यञ्च-भव में वास हो उसे निर्यञ्चायुष्य कर्म कहते हैं।
(३) मनुष्यायुष्य कर्म : जिसके उदय से शारीरिक और मानसिक सुख-दुःख से समाकुल मनुष्य-भव में जन्म हो उसे मनुष्यायुष्य कर्म कहते हैं।
(४) देवायुष्य कर्म : जिसके उदय से शारीरिक और मानसिक अनेक सुखों से प्रायः युक्त देवों में जन्म हो उसे देवायुष्य कर्म कहते हैं।
नरकायुष्य कर्म निश्चय ही अशुभ है और पाप-कर्म की कोटि का है। स्वामीजी के मत से कुदेव, कुनर और कई तिर्यञ्चों का आयुष्य भी अशुभ है और पाप-कर्म की कोटि का है (देखिए टि० ७ पृ० १६०-६२) । __अशुभ आयुष्य कर्म के बंध-हेतुओं का विवेचन पहले आ चुका है (देखिए टि० ५ पृ० २०६; टि० ६ पृ० २१०; टि० ७ पृ० २११; टि० १७ पृ० २२४; टि० १८ पृ० २२५) ।
२
१. प्रज्ञापना २३.१ :
गोयमा ! आउयस्स णं कम्म्स्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउविहे अणुभावे पन्नत्ते, तंजहा-नेरइयाउते, तिरियाउते, मणुयाउए, देवाउए। तत्त्वार्थवार्तिक ८.१०.५ :
नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यन्निमित्तं दीर्घजीवनं तन्नारकायु : ३. वही ८.१०.६
क्षुत्पिपासाशीतोष्णादिकृतोपद्रवप्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद्वसनं तत्तैर्यग्योनम् ४. वही ८.१०.७ :
शारीरमानससुखदुःखभूयिष्ठेषु मनुष्येषु जन्मोदयात् मनुष्यायुष : ५. वही ८.१०-८ :
शारीरमानससुखप्रायेषु देवेषु जन्मोदयात् देवायुषः