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________________ पाप पदार्थ : टिप्पणी १० ३२६ श्रमण बोले- “भगवन् ! इस दुःख को कैसे भोगना चाहिए ?" भगवान बोले- "अप्रमत्त हो इस दुःख को भोगना चाहिए'।" "अनगार विचारे- इस सुन्दर शरीरवाले अरिहंत भगवान तक जब कर्मों को क्षय करनेवाले तपः कर्म को ग्रहण करते हैं तो मैं भी वैसा क्यों न करूँ ? यदि मैं ऐसे कष्टों को सहन नहीं करूँगा. तो मेरे कर्मों का नाश कैसे होगा ? उनके नाश करने का तो यही उपाय है कि कष्टों को सहन किया जाय । यह चौथी सुखशय्या है।" १०. अशुभ आयुष्य-कर्म (गा० ४५-४६) : नाना गति के जीवों की जीवन-अवधि का निर्यामक कर्म आयुष्य-कर्म कहलाता है। इस कर्म की तुलना कारागृह से की जाती है। जिस प्रकार अपराधी को न्यायाधीश कारागृह की सजा दे दे तो इच्छा करने पर भी अपराधी उससे मुक्त नहीं हो सकता, उसी प्रकार जब तक आयु-कर्म रहता है तब तक आत्मा देह का त्याग नहीं कर सकता। इसी प्रकार आयु शेष होने पर जीव देह-स्थित नहीं रह सकता। आयुष्य-कर्म न सुख का कर्ता है और न दुःख का | आयुष्य-कर्म देह-स्थित जीव को केवल अमुक काल मर्यादा तक धारण कर रखता है। कहा है-“जीवस्स अवट्ठाणं करेदि आऊ हलिव्व णरं" (गो० कर्म० ११) श्री अकलङ्कदेव ने आयुष्य की परिभाषा इस प्रकार की है : "जिसके होने पर जीव जीवित और जिसके अभाव में वह मृत कहलाता है वह आयु है। आयु भवधारण का हेतु है। १. ठाणाङ्ग ३.१.१६६ २. ठाणाङ्ग ४.३.३२५ ३. प्रथम कर्मग्रन्थ २३ : सुरनरतिरिनरयाऊ हडिसरिसं ...। ४. ठाणाङ्ग २.४. १०५ टीका : दुक्खं न देइ आउं नविय सुहं देइ चउसुवि गईसुं। दुक्खसुहाणाहारं धरेइ देहट्ठियं जीयं ।। ५. तत्त्वार्थवार्तिक ८.१०.२ : यदभावाभावयोर्जीवितमरणं तदायु : (२) यस्य भावात् आत्मनः जीवितं भवति यस्य चाभावात् मृत इत्युच्यते तद्भवधारणमायुरित्युच्यते।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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