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पाप पदार्थ : टिप्पणी ५
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५. दर्शनावरणीय कर्म (गा० ९-१५) :
पदार्थों के आकार के अतिरिक्त अर्थों की विशेषता को ग्रहण किये बिना केवल सामान्य का ग्रहण करना दर्शन है। जो कर्म ऐसे दर्शन का आवरणभूत होता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ-अवान्तरभेद नौ कहे गये हैं :
(१) चक्षुदर्शनावरणीय कर्म । चक्षु द्वारा होने वाले सामान्य बोध को चक्षुदर्शन कहते हैं। उसको आवृत करनेवाला कर्म चक्षुदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के उदय से जीव के आँखें नहीं होती अथवा आँखें होने पर भी ज्योति नष्ट हो जाती है।
(२) अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म । नेत्रों को छोड़ कर अन्य इन्द्रियों और मन के द्वारा होनेवाला सामान्य बोध अचक्षुदर्शन है। उसको आवृत करने वाला कर्म अचक्षुदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है। इस कर्म के उदय से नेत्र से भिन्न अन्य इन्द्रियाँ-श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय तथा मन नहीं होते अथवा होने पर भी अकार्यकारी होते हैं।
(३) अवधिदर्शनावरणीय कर्म । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी द्रव्यों का जो सामान्य बोध होता है उसे अवधिदर्शन कहते हैं। ऐसे दर्शन को आवृत करनेवाला कर्म अवधिदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है।
(४) केवलदर्शनावरणीय कर्म। सर्व द्रव्य और पर्यायों का युगपत् साक्षात सामान्य अवबोध केवलदर्शन कहलाता है। उसे आवृत करनेवाला कर्म केवलदर्शनावरणीय कर्म कहलाता है।
(५) निद्रा। जिससे सुख से जाग सके ऐसी नींद उत्पन्न हो उसे निद्रा दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
(६) निद्रानिद्रा । जो कर्म ऐसी नींद उत्पन्न करे कि सोया हुआ व्यक्ति कठिनाई से जाग सके उसे निद्रानिद्रा दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं।
१. जं सामन्नग्गहणं भावाणं नेव कटु आगारं।
अविसेसिऊण अत्थे दंसणिमिह वुच्चए समये ।। २. (क) उत्त० ३३.५-६ :
निद्दा तहेव पयला निद्दानिद्दा पयलपयला य। तत्तो य थीणगिद्धी उ पंचमा होइ नायव्वा ।। चक्खुमचक्खूओहिस्स दंसणे केवले य आवरणे।
एवं तु नवविगप्पं नायव्वं दंसणावरणं ।। (ख) समवायाङ्ग सू० ६; ठाणाङ्ग ८.३.६६८