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________________ ३०६ नव पदार्थ जब ज्ञानावरणीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय होता है तब केवलज्ञान प्रकट होता है। सम्पूर्ण क्षय न होकर क्षयोपशम होता है तब मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरोपम की होती है। इस कर्म के बंध-हेतुओं का उल्लेख पहले आ चुका है। (देखिए-पुण्य पदार्थ (ढा० २) टि० २३ पृ० २२६) ज्ञानावरणीय कर्म के बंध-हेतुओं की व्याख्या इस प्रकार है : (१) ज्ञान-प्रत्यनीकता : ज्ञान या ज्ञानी की प्रतिकूलता। इसके स्थान में तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान-मात्सर्य है, जिसका अर्थ है दूसरा मेरे बराबर न हो जाय इस दृष्टि से ज्ञानदान । न करना। (२) ज्ञान-निह्नव : अभय देव ने इसका अर्थ किया है-ज्ञान या ज्ञानियों का अपलपन । तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में इसका अर्थ इस प्रकार मिलता है-ज्ञान को छिपाना। तत्त्व का स्वरूप मालूम होने पर भी पूछने पर न बताना। (३) ज्ञानान्तराय : किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना। (४) ज्ञान-प्रद्वेष : ज्ञान या ज्ञानी के प्रति द्वेष-भाव-अप्रीति । तत्त्वार्थसूत्र में इसके स्थान प्र 'तत्प्रदोष' है, जिसका अर्थ है-ज्ञान, ज्ञानी या ज्ञान के साधनों के प्रति जलन । (५) ज्ञानाशातना : ज्ञान या ज्ञानी भी हीलना। तत्त्वार्थसूत्र में इसके स्थान पर 'ज्ञानासादन' है। ज्ञान देनेवाले को रोकना ज्ञानासदन । (६) ज्ञान-विसंवादन योग : ज्ञान या ज्ञानी के विसंवाद-व्याभिचार-दर्शन की प्रवृत्ति । इसके स्थान पर तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञानोपघात हेतु है। प्रशस्त ज्ञान अथवा ज्ञानी में दोष निकालना। १. उत्त० ३३.१६-२० उढहीसरिसनामाण तीसई कोडिकोडीओ। उक्कोसिया ठिई होइ अन्तोमुहुत्तं जहन्निया।। आवरणिज्जाण दुण्हं पि वेयणिज्जे तहेव य। अन्तराए य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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