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________________ २६६ प्राणातिपात आदि क्रियाएँ पाप रूप हैं-अशुभ योग के भेद हैं। पर पाप-कर्म केवल अशुभ योगों से ही नहीं बंधते । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय- ये भी आस्रव हैं । इन हेतुओं से भी कर्मों का आस्रव होता है। मिथ्या श्रद्धान करना मिथ्यात्व है; हिंसा आदि पाप-कार्यों का प्रत्याख्यान न होना अविरति है; धर्म में अनुत्साह-भाव- अरुचि भाव प्रमाद है; क्रोध - मान-माया - लोभ से आत्म-प्रदेशों का मलीन होना कषाय है । ये सभी कर्म-हेतु कर्मों से भिन्न हैं । (२) आशय से ही योग शुभ नहीं होता : एक विद्वान लिखते हैं: "अप्रशस्त आशय से सेवन किये हुए प्राणातिपात आदि पापस्थानक पाप-कर्म के बन्ध-हेतु होते हैं। प्रशस्त आशय से सेवन किये गये कई पाप स्थानक पुण्य के हेतु भी हैं। उदाहरण स्वरूप द्रव्यादि की आकांक्षा से दूसरे की वंचना " करना अप्रशस्त माया है। जैसे वणिकों या इन्द्रजालिकों की माया । व्याध से मृग को झूठ बोलकर छिपा देना प्रशस्त माया है। झूठ बोलकर रोगी को कड़वी दवा पिलाना भी इसी श्रेणी में आता है। कोई व्यक्ति दीक्षा के लिये उपस्थित है और उसके पिता आदि आत्मीय जन उसकी दीक्षा में विघ्न डालने वाले हैं, ऐसे अवसर पर उन लोगों से यह कहना - 'हे भाई ! मैंने बड़ा ही खराब स्वप्न देखा है ओर उससे यह पता चलता है कि तुम्हारा लड़का अल्पायु है-थोड़े ही दिनों में मर जायगा' प्रशस्त माया है। 'सम्यक् यति-आचार ग्रहण कर सके' इस हेतु से कहे गये ये वचन श्री आर्य रक्षित द्वारा समर्थित हैं : १. झीणी चर्चा ढा० २२.२२ : नव पदार्थ ऊंधो सरधै तिणनें कह्यो जी, आस्रव्र प्रथम मिथ्यात । २. जे जे सावद्य काम त्यागा नहीं छै त्यांरी आशा वांछा रही लागी । तिण जीव तणा परिणाम छै मैला, अत्याग भाव अव्रत छै सागी रे ।। ३. झीणी चर्चा ढा० २२.३०,२८ : असंख्याता जीव रा प्रदेश में, अणउछाहपणो अधिकाय । ते दीसै तीनूं जोगां स्यूं जुदोजी, प्रमाद आस्रव ताय ।। वही ढा० २२.१२, १३ : क्रोध स्यूं बिगड्या प्रदेश नें जी, ते आस्रव कहिए कषाय । उदेरी क्रोध करै तसुजी, अशुभ जोग कहिवाय । निरंतर बिगड्या प्रदेश नें जी, कहिये आस्रव कषाय ।। ४.
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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