SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ३१ २५३ "जिसके और कोई आशा नहीं होती, और जो केवल निर्जरा के लिए तप करता है, वह पुराने पाप कर्मों को धुन डालता है'।" . स्वामीजी ने अन्यत्र कहा है : . "निर्वद्य जोग तो साधु प्रवर्ताव ते कर्मक्षय करवाने प्रवर्तावै छ । निर्वद्य जोग प्रवर्तायां महानिर्जरा हुवै छै । कर्मा री कोड़ खपै छै । इण कारणे प्रवर्तावै छै । पिण पुन्य लगावाने प्रवर्तावै नहीं। जो पुन्य लगावाने जोग प्रवर्ताव तो जोग अशुभ हीज हुवै । पुन्य री चावना ते जोग अशुभ छै। "शुभ जोग प्रवर्तावतां पुन्य लागै छै ते साधु रै सारे नहीं । आपरा कर्म काटण नै जोग प्रवर्तायां वीतराग नी आज्ञा छै । तिण सूं निर्वद्य जोग आज्ञा मांहैं छै। ___ "निर्वद्य जोग पुन्य ग्रहै छै । ते टालवा री साधु री शक्ति नहीं। निर्वद्य जोग सूं पुन्य लागै ते सहजै लागे छै। तिण उपर साधु राजी पिण नहीं। जाणपणा मांहिं पिण यूं जाणे छै-ए पुन्य कर्म ने काटणा छै । इणने काट्यां बिना मोनें आत्मीक सुख हुवै नहीं। "इण पुन्य सूं तो पुद्गलीक सुख पामै छ। तिण उपर तो राजी हुयां सात आठ पाडू वा कर्म बंधे तिण सूं साधु चारित्रियां ने राजी होणो नहीं।" ___जो सर्व काम, सर्व राग आदि से रहित हो केवल मोक्ष के लिए धर्म-क्रिया करता है उसे किस प्रकार मुक्ति प्राप्त होती है, इसका उल्लेख इस प्रकार मिलता है। एक बार श्रमण भगवान महावीर ने कहा : "हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने निग्रंथ-धर्म का प्रतिपादन किया है। प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, प्रतिपूर्ण है, केवल है, संशुद्ध है, नैयायिक है, शल्य का नाश करने वाला है, सिद्धि-मार्ग है, मुक्ति-मार्ग है, निर्याण-मार्ग है, निर्वाण-मार्ग है और अविसंदिग्ध-मार्ग है। यह सर्व दुःखों के क्षय का मार्ग है। इस मार्ग में स्थित जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं और परिनिवृत्त हो सर्व दुःखों का अन्त करते हैं। १. दशवैकालिक ६.४.८ : विविह-गुण-तवो-रए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ पुराण-पावगं जुत्तो सया तव-समाहिए ।। २. भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड ३) : टीकम डोसी री चर्चा
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy