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पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी ३१
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सम्भूत बोले-“हे चित्त ! मैंने पूर्व जन्म में सत्य और शौचयुक्त कर्म किये थे उनका फल यहां भोग रहा हूं | क्या तुम भी वैसा ही फल भोग रहे हो।"
चित्त बोले-"मनुष्यों का सुचीर्ण-सदाचरण सफल होता है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं होती। मेरी आत्मा भी पुण्य के फलस्वरूप उत्तम द्रव्य और कामभोगों से युक्त थी। पर मैं अल्पाक्षर और महान अर्थवाली गाथा को सुनकर ज्ञानपूर्वक चारित्र से युक्त होकर श्रमण हुआ हूँ।"
सम्भूत बोले-“हे भिक्षु ! नृत्य, गीत और वाद्ययन्त्रों से युक्त ऐसी स्रियों के परिवार के साथ इन भोगों को भोगो । यह प्रव्रज्या तो निश्चय ही दुखःकारी है।"
चित्त बोले-"राजन् ! अज्ञानियों के प्रिय किन्तु अन्त में दुखःदाता-काम-गुणों में वह सुख नहीं है, जो काम-विरत, शील-गुण में रत रहने वाले तपोधनी भिक्षुओं को होता है।
"राजन् ! चाण्डाल-भव में कृत धर्माचरण के शुभ फलस्वरूप यहाँ तुम महा प्रभावशाली ऋद्धिमंत और पुण्य-फल से युक्त हो। राजन् ! इस नाशवान जीवन में जो अतिशय पुण्यकर्म नहीं करता है, वह धर्माचरण नहीं करने से मृत्यु के मुंह में जाने पर शोक करता है। उसके दुःख को ज्ञातिजन नहीं बंटा सकते, वह स्वयं अकेला ही दुःख भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता का ही अनुसरण करते हैं। यह आत्मा अपने कर्म के वश होकर स्वर्ग या नरक में जाता है। पाञ्चालराज ! सुनो तुम महान आरम्भ करने वाले मत बनो।"
सम्भूत बोले-“हे साधु ! आप जो कहते हैं उसे मैं समझता हूँ, किन्तु हे आर्य ! ये भोग बन्धनकर्ता हो रहे हैं, जो मेरे जैसे के लिए दुर्जय हैं। हे चित्त ! मैंने हस्तिनापुर में महाऋद्धिशाली नरपति (और रानी) को देखकर कामभोग में आसक्त हो अशुभ निदान किया था, उसका प्रतिक्रमण नहीं करने से मुझे यह फल मिला है। इससे मैं धर्म को जानता हुआ भी काम-भोगों में मूर्छित हूँ। जिस प्रकार कीचड़ में फँसा हुआ हाथी स्थल को देखकर भी किनारे नहीं आ सकता उसी प्रकार काम-गुणों में आसक्त हुआ मैं साधु के मार्ग को जानता हुआ भी अनुसरण नहीं कर सकता।"
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उत्त० १३.२८-२६ :
हत्थिणपुरम्मि चित्ता दह्णं नरवइं महिड्ढीयं । कामभोगेसु गिद्धेणं नियाणमसुहं कडं ।। तस्स मे अपडिकन्तस्स इमं एयारिसं फलं । जाणमाणो वि जं धम्मं कामभोगेसु मुच्छिओ।।