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________________ २५० नव पदार्थ "कोई धर्म को सुन लेता है, उस पर श्रद्धा, विश्वास और रुचि भी करने लगता है पर सम्भव नहीं कि वह शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास को ग्रहण कर सके। 'कोई तथारूप श्रमण-माहन द्वारा प्ररूपित धर्म सुन लेता है, उस पर श्रद्धा, विश्वास और रुचि भी करने लगता है तथा शीलव्रतादि भी ग्रहण कर लेता है पर यह सम्भव नहीं कि वह मुंडित हो घर से निकल अनगारिता ग्रहण कर सके। __ "कोई तथारूप श्रमण-माहन द्वारा केवली-प्ररूपित धर्म सुनता है, उसपर श्रद्धा, विश्वास और रुचि करता है तथा मुण्ड हो घर से निकल अनगारिता-प्रव्रज्या ग्रहण करता है पर संभव नहीं कि वह इसी जन्म में इसी भव में सिद्ध हो-सर्व दुःखों का अंत कर सके। इस प्रकार निदान कर्म का पाप रूप फल-विपाक होता है। जो तप आदि कृत्यों के फलस्वरूप कामभोगों की कामना करता है और जो शुद्ध भाव से केवल कर्मक्षय के लिए तपस्या करता है उन दोनों के फल-विपाक का विवरण 'उत्तराध्ययन सूत्र के चित्तसंभूत अध्ययन में बड़े ही मार्मिक ढंग से किया गया है। यह प्रकरण दशाश्रुतस्कंध में प्ररूपित उक्त सिद्धान्त का सोदाहरण विवेचन है। उसका संक्षिप्त सार नीचे दिया जा रहा है। कांपिल्य नगर में चूलनी रानी की कुक्षि से उत्पन्न हो सम्भूत महर्द्धिक, महा यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुआ। चित्त पुरिमताल नगर के विशाल श्रेष्ठि कुल में उत्पन्न हो धर्म सुनकर दीक्षित हुआ। एक बार कांपिल्य नगर में चित्त और सम्भूत दोनों मिले और आपस में सुख-दुःख फल-विपाक की बातें करने लगे। सम्भूत बोले-"हम दोनों भाई एक दूसरे के वश में रहने वाले, एक दूसरे से प्रेम करने वाले और एक दूसरे के हितैषी थे । दशार्ण देश में हम दोनों दास थे, कलिंजर पर्वत पर मृग, मृतगंगा के किनारे हंस और काशी में चाण्डाल थे। हम देवलोक में महर्द्धिक देव थे। यह हम दोनों का छठवां भव है जिसमें हम एक दूसरे से पृथक हुए हैं। चित्त बोले-"राजन ! तुमने मन से निदान किया था, उस कर्म-फल के विपाक से हमारा वियोग हुआ है।" १. उक्त १३.८ कम्मा नियाणपयडा तुमे राय विचिन्तिया। तेसिं फलविवागेण विप्पओगमुवागया।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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