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________________ पुण्य पदार्थ ( ढाल : २) : टिप्पणी ३० जिससे स्वाध्याय, तप आदि की वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है (तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिर्द्रव्यविशेषः ७.३६) । उपर्युक्त विवेचन से भी स्पष्ट है कि दान की विशेष रूप से स्वतंत्र व्याख्या करते हुए भी वहाँ पात्र में असंयतियों को स्थान नहीं दिया है। ‘भगवती सूत्र' में असंयतियों को 'प्रासुक अप्रासुक - अशन पानादि' देने में एकान्त पाप कहा है : २३६ समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं असंजयं अविरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मं फासुण वा, अफासुएण वा, एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा असणपाण० जाव किं कज्जइ ? गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ, नत्थि से कावि निज्जरा कज्जइ (५.६) । ऐसी स्थिति में किसी भी परिस्थिति में दिये गये असंयति दानों में पुण्य की प्ररूपणा नहीं की जा सकती । पूर्व विवेचन में भिन्न-भिन्न पुण्य कर्मों के बंध-हेतुओं के उल्लेख आये हैं। पुण्यबंध के इन हेतुओं में सार्वभौम दान को कहीं भी स्थान नहीं है । तथारूप श्रमण-निर्ग्रथ को प्रासुक एषणीय आहारादि के दान से ही पुण्य प्रकृति का बंध बतलाया है। तथ्य यह है कि अन्न-पुण्य, पान-पुण्य आदि की व्याख्या करते हुए पात्र रूप में साधु को ही स्वीकार करना आगमानुसारी व्याख्या है। ३०. सावद्य-निरवद्य कार्य का आधार (गा० ५५-५८) : स्वामीजी ने गाथा ४४ से ५४ तक यह सिद्ध किया है कि सावद्य दान से पुण्य कर्म का बंध नहीं होता । सार्वभौम रूप से कहा जाय तो इसका आशय यह होगा कि सावद्य कार्य से पुण्य कर्म का बंध नहीं होता, निरवद्य कार्य से पुण्य कर्म का बंध होता है। 1 प्रश्न होता है - निरवद्य कार्य और सावद्य कार्य का आधार क्या है ? स्वामीजी यहां बताते हैं- जिस कार्य में जिन-आज्ञा होती है वह निरवद्य कार्य होता है और जिस कार्य में जिन-आज्ञा नहीं होती वह सावद्य कार्य है । उदाहरण स्वरूप जीवों का घात करना, असत्य बोलना आदि अठारह पापों का सेवन जिन-आज्ञा में नहीं हैं। ये सावद्य कार्य हैं। हिंसा न करना, झूठ न बोलना आदि जिन - आज्ञा में हैं। ये निरवद्य कार्य हैं । निरवद्य कार्य में प्रयुक्त मन, वचन और काय के योग शुभ हैं और सावद्य कार्य ।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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