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________________ २३८ नव पदार्थ संयतियों को इसका अर्थ है-मूल उत्तर गुण से सम्पन्न संयतात्माओं को। माहव्रतयुक्त साधुओं को। भाष्य-पाठ के 'कल्पनीय', 'श्रद्धा-सत्कार', 'अनुग्रह-बुद्धि' और 'सयंति' शब्द और इन शब्दों की 'सिद्धसेन टीका' से यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थकार ने संयतियोंसाधुओं को ही इस व्रत का पात्र, साधुओं के ग्रहण योग्य वस्तुओं को ही कल्पनीय देय द्रव्य माना है। मूल सूत्र स्पर्शी दिगम्बरीय टीका और वार्तिक भी इसीका समर्थन करते हैं। सार यह है कि बारहवें व्रत के 'अतिथि' शब्द की व्याख्या में साधु के अतिरिक्त किसी अन्य को दान देने का विधान नहीं है। ऐसी हालत में दूसरों को दान देने में पुण्य की स्थापना करना स्वतंत्र कल्पना है। दान की परिभाषा 'तत्त्वार्थ सूत्र में अन्यत्र इस प्रकार है : 'अनुग्रह के लिये अपनी वस्तु का उत्सर्ग करना दान है' (अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ७.३३)। वहीं लिखा है : 'विधि, देयवस्तु, दाता और ग्राहक की विशेषता से उसकी (दान की) विशेषता है' (विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः ७.३४)। भाष्य में 'पात्रेऽतिसर्गो दानम्' अर्थात् पात्र के लिये अतिसर्ग करना-त्याग करना दान कहा है। 'पात्र विशेषः' की व्याख्या करते हुये भाष्य में लिखा है : 'पात्रविशेषः सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपःसम्पन्नता इति।' स्मयक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सम्पन्नता से पात्र में विशेषता आती है। 'स्वार्थसिद्धि' में भी मोक्ष के कारण भूत गुणों से युक्त रहना पात्र की विशेषता बताई है (मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः ७.३६)। द्रव्य विशेष की व्याख्या करते हुये लिखा है १. वही : अतः संयता मूलोत्तरसम्पन्नास्तेभ्यः संयतात्मभ्यो दानमिति २. (क) सर्वार्थसिद्धि ७.२१ : संयममविनाशयन्नततीत्यतिथिः। .......मोक्षार्थमभ्युद्यतायातिथये संयमपरायणाय शुद्धाय शुद्धचेतसा निरवद्या भिक्षा देया। धर्मोपकरणानि च सम्यग्दर्शनाद्युपबृंहणानि दातव्यानि। औषधमपि योग्यमुपयोजनीयम्। प्रतिश्रयश्च परमधर्मश्रद्धया प्रतिपादयितव्य इति (ख) राजवार्तिक ७.२१ : चारित्रलाभबलोपेतत्वात् संयममविनाशयन् अततीत्यतिथिः (ग) श्रुतसागरी ७.२१ : संयममविराध्यन् अतति भोजनार्थ गच्छति यः सोऽतिथिः। ... यो मोक्षार्थे उद्यतः संयमतत्परः शुद्धश्च भवति तस्मै निर्मलेन चेतसा अनवद्या भिक्षा दातव्या, धर्मोंपकरणानि च......रत्नत्रयवर्द्धकानि प्रदेयानि, औषधमपि योग्यमेव देयम्, आवासश्च परमधर्मश्रद्धया प्रदातव्यः
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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