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नव पदार्थ
(४) दर्शन-प्रद्वेषः, (५) दर्शनाशातना और
(६) दर्शन-विसंवादन योग। ३. मोहनीय कर्म के बंध-हेतु :
(१) तीव्र क्रोध, (२) तीव्र मान, (३) तीव्र माया, (४) तीव्र लोभ, (५) तीव्र दर्शन मोहनीय और
(६) तीव्र चारित्रमोहनीय। ४. अन्तराय कर्म के बंध-हेतु :
(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।
२४. वेदनीय आदि पुण्य कर्मों की निरवद्य करनी (गा० ३२) :
ज्ञानावरणीय आदि चार एकान्त पाप-कर्मों के उपरान्त वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र ये चार कर्म और हैं तथा इनके दो-दो भेद हैं : १. सातावेदनीय
असातावेदनीय २. शुभ आयुष्य
अशुभ आयुष्य ३. शुभ नाम
अशुभ नाम ४. उच्च गोत्र
नीच गोत्र इनमें से सातावेदनीय आदि चार पुण्य कोटि के हैं और असातावेदनीय आदि चार पाप कोटि के (देखिए पृ० १५५ टि० ३) ।
इनके बंध-हेतुओं का उल्लेख किया जा चुका है तथा यह बताया जा चुका है कि पुण्य रूप सातावेदनीय आदि कर्मों के बंध-हेतु शुभ योग और पाप रूप असातावेदनीय आदि कर्मों के बंध-हेतु अशुभ योग रूप हैं।
उपसंहारात्मक रूप से स्वामीजी ने उसी बात को यहाँ पुनः दुहराया है।