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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) : टिप्पणी २ २०१ दिगम्बर ग्रन्थों में प्रतिग्रहण, उच्चस्थापन, पाद-प्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, मनः शुद्धि, वचन-शुद्धि, काय-शुद्धि और एषण (भोजन) शुद्धि इन नौ को नौ पुण्य कहा है'। इन नौ पुण्यों में बहुमान की उन विधियों का संकलन है जो दिगम्बर मत से एक दाता को दान देते समय मुनि के प्रति सम्पन्न करनी चाहिए। स्वामीजी नौ प्रकार के पुण्यों से उन्हीं पुण्यों की ओर संकेत करते हैं जिनका उल्लेख 'स्थानाङ्ग' आगम में है। स्वामीजी कहते हैं-"नव प्रकारे पुन नीपजे, ते करणी निरवद जांण"-अन्न-दान आदि पुण्य के कारण तभी होते हैं जब वे निरवद्य होते हैं। जब अन्न-दान आदि सावद्य होते हैं तब उनसे पुण्य का बंध नहीं होता। यह पहले बताया जा चुका है कि कर्मों के दो विभाग होते हैं-(१) पुण्य और (२) पाप। पुण्य का स्वभाव है सुखानुभूति उत्पन्न करना। पाप का स्वभाव है दुःखानुभूति उत्पन्न करना । पुण्य और पाप दोनों ही के अनेक अन्तरभेद हैं। और प्रत्येक भेद की अपनी-अपनी विशिष्ट प्रकृति अथवा स्वभाव है। पुण्य कर्म के ४२ भेद पहले बताये जा चुके हैं। प्रत्येक भेद अपने स्वभाव के अनुसार फल देता है । कर्मों का यह फल देना ही उनका भोग है। पुण्य कर्म अपने अन्तरभेदों की विवक्षा से ४२ प्रकार से उदय में आता है। दूसरे शब्दों में कहा जाता है-जीव पुण्य कर्म का फल भोग ४२ प्रकार से करता है। २. पुण्य की करनी में निर्जरा और जिन-आज्ञा की नियमा (दो० २): स्वामीजी यहाँ दो सिद्धान्त प्रतिपादित करते हैं : १. जिस करनी-क्रिया से पुण्य का बंध होता है उससे निर्जरा अवश्य होती है । २. वह क्रिया जिन-आज्ञा में होती है-जिनानुमोदित होती है। स्वामीजी ने इन दोनों ही सिद्धान्तों पर बाद में विस्तृत प्रकाश डाला है (देखिए गा० १-२ आदि) । वहीं टिप्पणियों में विस्तृत विवेचन भी है । १. पडिगहणमुच्चठाणं पादोदकमच्चणं च पणमं च। मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धी य णवविहं पुण्णं ।। २. सागारधर्मामृत ५. ४५
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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