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________________ पुण्य पदार्थ (ढाल : २) दोहा १. पुण्य नौ प्रकार से उत्पन्न होता है। जिस करनी से पुण्य होता है उसे निरवद्य जानो । पुण्य ४२ प्रकार से भोग में आता है। बुद्धिमान इसकी पहचान करे। पुण्य के नवों हेतु निरवद्य हैं २. जिस करनी से पुण्य होता है उसमें निर्जरा भी निश्चय ही पुण्य की करनी में निर्जरा की नियमा जानो। निर्जरा की करनी में जिन-आज्ञा है इसमें जरा भी। शंका मत करो। कुपात्र और सचित्त दान में पुण्य नहीं (दो०३-६) ३. कई जैन साधु कहलाने पर भी जिन-मार्ग को पीठ दिखाकर कुपात्र को दान देने में पुण्य बतलाते हैं। उनकी आभ्यंतरिक आँखें फूट चुकी हैं। ४. जो बिना छाना हुआ कच्चा पानी पिलाने में पुण्य और धर्म बतलाते हैं वे जिन-मार्ग से दूर हैं। वे अज्ञानवश भ्रम _में भूले हुए हैं। ५. साधु के अतिरिक्त अन्य सबको भी सचित्त-अचित्त देने में वे पुण्य कहते हैं और (अपने कथन की पुष्टि में) स्थानाङ्ग सूत्र का नाम लेते हैं; परन्तु मूर में ऐसा पाठ न होने से यह अर्थ शून्यवत् है। ६. ऐसा विपरीत अर्थ भी स्थानाङ्ग की किसी एक प्रति में घुसा दिया गया है परन्तु सब प्रतियों में नहीं है। देख कर जांच करो। ७. पुण्य उपार्जन किस प्रकार होता है इसके लिए सूत्र देखो। सूत्रों में इस सम्बन्ध में वीर जिनेश्वर ने जो कहा है उसे चित्त लगा कर सुनो।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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