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________________ पुण्य पदार्थ : (ढाल : १) टिप्पणी १७ १७७ है क्योंकि संसार-भ्रमण केवल पाप से नहीं होता पुण्य से भी होता है तथा मोक्ष भी पुण्य और पाप दोनों के क्षय से प्राप्त होता है। इस तरह स्पष्ट है कि पुण्यार्थी धर्म और कर्म के मर्म को नहीं जानता। जो रहस्यभेदी आत्मार्थी है वह धर्म की कामना करेगा, कर्म की नहीं। "जो पौद्गलिक कामभोगों की वांछा करता है वह मनुष्य-भव को हारता है-स्वामीजी के इस कथन के पीछे उत्तराध्ययन के समूचे सातवें अध्ययन की भावना है। वहाँ कहा गया है : "जिस प्रकार खिला-पिला कर पुष्ट किया गया चर्बीयुक्त, बढ़े पेट और स्थूल देहवाला एलक पाहुन के लिए निश्चित होता है उसी प्रकार अधर्मिष्ट निश्चित रूप से नरक के लिए होता है। जिस प्रकार कोई मनुष्य एक काकिणी के लिए हजार मुद्राएँ खो देता है, और कोई राजा अपथ्य आम खाकर राज्य को खो देता है उसी प्रकार देवों के कामभोगों से मनुष्यों के कामभोग तुच्छ हैं; देवों के कामभोग और आयु मनुष्यों से हजारों गुणा अधिक हैं। प्रज्ञावान की देवगति में अनेक नयुत वर्ष की स्थिति होती है, उस स्थिति को दुर्बुद्धि मनुष्य सौ वर्ष की छोटी आयु में हार जाता है। जिस प्रकार तीन व्यापारी मूल पूंजी लेकर गये। उनमें एक ने लाभ प्राप्त किया। दूसरा मूल पूंजी लेकर वापस आया। तीसरा मूलधन खोकर लौटा। मनुष्य-भव मूल पूंजी के समान है, देवगति लाभ के समान है। नरक और तिर्यञ्च गति मूल पूंजी को खोने के समान है। विषय-सुखों का लोलुपी मूर्ख जीव देवत्व और मनुष्यत्व को हार जाता है। वह हारा हुआ जीव सदा नरक और तिर्यञ्च गति में बहुत लम्बे काल तक दुःख पाता है जहाँ से निकलना दुर्लभ होता १७. त्याग से निर्जरा-भोग से कर्म-बन्ध (गा० ५९) : स्थानाङ्ग में कहा है : "शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श ये पाँच कामगुण हैं। जीव इन पाँच स्थानों में आसक्त होते हैं, रक्त होते हैं, मूच्छित होते हैं, गृद्ध होते हैं, लीन होते हैं और नाश को प्राप्त करते हैं। “इन पाँच को अच्छी तरह न जाना हो, उनका त्याग न किया हो तो वे जीव के लिए अहित के कर्ता, अशुभ के कर्ता, असामर्थ्य को उत्पन्न करने वाले, अनिःश्रेयस के १. उत्त० २१.२४ दुविहं खवेऊण य पुण्यपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। तरित्ता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए।। उत्त० ७.२, ४, ११-१६ २.
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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