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________________ १७६ १६. पुण्य काम्य क्यों नहीं ( गा० ५७-५८ ) : इन गाथाओं में स्वामीजी ने दो बातें कही हैं : (१) पुण्य चतुःस्पर्शी कर्म है। उसकी वाञ्छा करनेवाला कर्म और धर्म का अन्तर नहीं जानता । (२) पुण्य प्राप्त करने की कामना से जो निर्जरा की क्रिया करता है वह करनी को खोता है और इस मनुष्य भव को हारता है । जो आत्मा को कर्मों से रिक्त करे वह धर्म है'। संयम और तप धर्म के ये दो भेद हैं । संयम से नये कर्मों का आस्रव रुकता है, तप से संचित कर्मों का परिशाटन होकर आत्मा परिशुद्ध होती है। धार्मिक पुरुष संयम और तप के द्वारा कर्मक्षय में प्रयत्नशील होता है । जो पुण्य की कामना करता है वह उल्टा कर्मार्थी है। क्योंकि पुण्य और कुछ नहीं चतुःस्पर्शी कर्म हैं । जो पुण्य की कामना करता है वह संसार की ही कामना करता १. c २. ३. ४. उत्त० २८.३३ : एयं चयरित्तकरं, चारितं होइ आहियं । । उत्त० १६.७७ : एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ।। नव पदार्थ उत्त० २६ प्र० २६-२७ संजमएण भंते! जीवे किं जणयइ ? संजमएण अणण्हयत्तं जणयइ । तवेणं भंते ! जीवे किं जणय ? तवेणं वोदाणं जणयइ । । उत्त० ३३.२५ : तम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागा वियाणिया । एएस संवरे चेव, खवणे य जए बुहो ।। ५. आत्मा के साथ बद्ध होनेवाले कर्म-स्कन्ध दल चतुष्पर्शी होते हैं। प्रश्न है वे चार स्पर्श कौन से हैं । चिरन्तनाचार्य प्रणीत 'नव तत्त्व अवचूरि' में बताया गया है कि शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष-ये चार स्पर्श होते हैं। यह उनका अपना मत है। किन्तु अवचूरि में ही वृहत् शतक की टीका का उल्लेख करते हुए उन्होंने चार स्पर्श इस प्रकार बतलाए हैं - मृदु और लघु ये दो स्पर्श सूक्ष्म द्रव्यों में रहते हैं अतः कर्म-स्कन्ध दल में ये दो स्पर्श तो होंगे ही। अब रहे दो अन्य स्पर्श । वे शीत, उष्ण और स्निग्ध रुक्ष इनमें से कोई दो अविरुद्ध होने चाहिये अर्थात् शीत-स्निग्ध, शीत-रुक्ष, उष्ण- स्निग्ध और उष्ण-रुक्ष उक्त चार विकल्पों में से कोई भी एक विकल्प हो सकता है जिसमें अविरुद्ध दो स्पर्श आ जाते हैं। इस प्रकार वृहत् शतक टीकाकार चार स्पर्श मानता है । आगम में कर्म-स्कन्ध में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष-ये चार स्पर्श माने गये हैं । औदारिक आदि के पुद्गल स्कंध अष्ट स्पर्शी ही होते हैं । 1
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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