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________________ १६८ उपर्युक्त विवचेन से स्पष्ट है कि पुण्य कर्म की सर्वमान्य प्रकृतियाँ ४२ ही हैं : १. सातावेदनीय कर्म की १ (गा० ५) ( गा० ७) (गा० ६-२५) ( गा० ३०) २. शुभ आयुष्य कर्म की ३. शुभ नामकर्म की ४. उच्च गोत्रकर्म की १. ३ ३७ १ कुल ४२ इन ४२ प्रकृतियों का उल्लेख संक्षेप में इस प्रकार मिलता है : सा-उच्चगोअ-मणुदुग-सुरदुग पंचिंदिजाइ पणदेहा | आइतितणूणुवंगा, आइमसंघयण-संठाणा । । वण्णचउक्का-गुरुलघु-परघा- ऊसास- आयवुज्जोअं । सुभखगइ-निमिण-तसदस-सुरनरतिरिआउ-तित्थयरं ।। तस-बायर-पज्जत्तं पत्तेयं थिरं सुभं च सुभगं च । सुस्सर आइज्ज-जसं, तसाइदसगं इमं होइ' ।। नव पदार्थ ११. कर्मों के नाम गुणनिष्पन्न हैं ( गा० ३२-३४ ) : कर्म का नाम उसकी प्रकृति-गुण के अनुरूप होता है। उदाहरण स्वरूप जो सात (सुख) उत्पन्न करता है वह सातावेदनीय कर्म कहलाता है। जिसके जैसा कर्म उदय में होता है वैसा ही उसको फल मिलता है। जैसे जिसके सातावेदनीय कर्म का उदय है उसे सुख की प्राप्ति होती है । जिस मनुष्य के जिस कर्म के उदय से जैसा गुण उत्पन्न होता है उसी के अनुसार उसकी संज्ञा होती है। जैसे सातावेदनीय कर्म के उदय से जिस जीव को सुख होता है वह सुखी कहलाता है। यही बात सब कर्मों के विषय में समझनी चाहिए । कर्म पुद्गल की पर्यायें हैं । पुद्गलों के कर्मों के जो सातावेदनीय आदि भिन्न-भिन्न नाम हैं वे जीव के साथ पुद्गलों के सम्बन्ध से घटित हैं । जीव सुस्वर, आदेय वचन वाला, तीर्थङ्कर आदि कहलाता है इसका कारण यह है कि वह पुद्गलों के द्वारा शुद्ध बना है । नवतत्त्व प्रकरण (विवेचन सहित) ११, १२, १३
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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