SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुण्य पदार्थ (टाल : १) १४३ २७. पहले संस्थान और पहले संहनन के सिवा शेष चार संहनन और संस्थान में पुण्य का मेल मालूम देता है फिर जो ज्ञानी कहे वह प्रमाण है। २८. जो-जो हाड़ पहले संहनन में है उनमें से ही जो शेष चार संहननों में है उनको एकान्त पाप में डालना न्याय-सग नहीं मालूम देता। २६. जो-जो आकार पहिले संस्थान में हैं, उनमें से ही जो आकार बाकी के चार संस्थानों में है उनको भी एकान्त पाप में डालना न्यायसंगत नहीं मालूम देता। उच्च गोत्र कर्म (गा० ३०-३१) ३०. जो पुद्गल-वर्गणा आत्म-प्रदेशों में आकर उच्च गोत्र रूप । परिणमन करती हैं और उसी रूप में उदय में आती है और जिससे उच्च पदों की प्राप्ति होती है उसका नाम 'उच्च गोत्र कर्म' है। ३१. सबसे उच्च और जिसके कहीं भी छूत नहीं लगी हुई हैं ऐसी जाति के जो मनुष्य और देवता हैं उनके उच्च गोत्र कर्म है। पुण्य कर्मों के नाम गुणानप (गा० ३२-३४) ३२. जो-जो गुण जीव के शुभ रूप से उदय में आते हैं उनके अनुरूप ही जीवों के नाम हैं और जीव के साथ संयोग से __ वैसे ही नाम पुद्गलों के हैं। ३३. जीव पुद्गल से शुद्ध होकर नाना प्रकार के अच्छे-अच्छे नाम प्राप्त करता है। जिन पुद्गलों से जीव शुद्ध होता है उन पुद्गलों के नाम भी शुद्ध हैं। . ३४. जिन पुद्गलों के संग से जीव संसार में उच्च कहलाता है वे पुद्गल भी उच्च कहलाते हैं। इसका न्याय मूर्ख नहीं समझते"।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy