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________________ fx नव पदार्थ स्वामीजी का यह कथन ठांणांग के आधार पर है। वहाँ कहा गया है-“काल तीन तरह का है-अतीत, वर्तमान और अनागत । समय भी तीन प्रकार है-अतीत, वर्तमान और अनागत । आवलिका, आन, प्राण, यावत् पुद्गल परावर्त-ये सब भी समय की ही तरह तीन प्रकार के हैं-अतीत, वर्तमान और अनागत' ।" इसका अर्थ यही है कि काल के भेद सब समय में ऐसे ही होते हैं। २१. काल का क्षेत्र प्रमाण : (गा० ३९-४०) : काल द्रव्य के क्षेत्र का सामान्य सूचन पूर्व गाथा २७ में आया है। वहाँ और यहाँ के सूचनों से काल द्रव्य के क्षेत्र के विषय में निम्नलिखित बातें प्रकाश में आती हैं : (१) काल का क्षेत्र प्रमाण ढाई द्वीप है। उसके बाहर काल द्रव्य नहीं है। यह काल का तिरछा विस्तार है। उर्ध्व दिशा में उसका क्षेत्र ज्योतिष चक्र तक ६०० योजन है। अधोदिशा में सहस्र योजन तक महाविदेह की दो विजय तक है। (२) काल इतने क्षेत्र प्रमाण में ही वर्तन करता है। उसके बाद उसका वर्तन नहीं काल का क्षेत्र प्रमाण द्वीप ही क्यों है इसका कारण गाथा २७ और ३४ में दिया हुआ है। जैन ज्योतिष विज्ञान के अनुसार मनुष्य लोक और उसके बाहर के सूर्य चन्द्रमा आदि ज्योतिषी भिन्न-भिन्न हैं। मनुष्य लोक के सूर्य चन्द्रमा आदि गतिशील हैं। वे सदा मेरु के चारों ओर निश्चित चाल से परिक्रमा करते रहते हैं । इस गति में तीव्रता मंदता नहीं आती। उनकी चाल हमेशा समान होती है। उसके बाहर रहने वाले सूर्य चन्द्रमा आदि ज्योतिष्क स्थिर हैं, गतिशील नहीं है। मनुष्य लोक के सूर्य चन्द्रमा आदि की गति नियत चाल से होती है। इसी नियत गति के आधार पर काल के समय आदि विभाग निर्धारित किये गये हैं। ] मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष इत्यादि जो काल व्यवहार प्रचलित हैं वे मनुष्य लोक तक ही सीमित हैं-उसकं बाहर नहीं। मनुष्य लोक के बाहर यदि कोई काल १. ठाणाङ्ग ३.३.१६२ २. देखिये पृ० ८६ टि० १६ ३. उत्तराध्ययन ३६.२०७ : चन्दा सूरा च नक्खत्ता गहा तारागणा तहा। ठियाविचारिणो चेव पंचहा जोइसालया।।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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