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________________ अजीव पदार्थ : टिप्पणी १७ यह आवलिका है, यह उत्सर्पिणी है, यह अवसर्पिणी है, यह अर्थ समर्थ नहीं। गौतम ! इसी भांति यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवो तक समझो।" "भगवन् ! क्या इस (मनुष्यलोक) में गये हुए मनुष्य यह जानते हैं--यह समय है, वह आवलिका है, य उत्सर्पिणी है, या अवसर्पिणी है ?" "हाँ गौतम ! जानते हैं।" "ऐसा किस हेतु से कहते हैं भगवन् !" "गौतम ! इस मनुष्य-क्षेत्र में ही समयादि का मान है, इस मनुष्य-क्षेत्र में ही समर्याद का प्रमाण है। इस मनुष्य क्षेत्र में ही समयादि के बारे में ऐसा जाना जाता है कि यह समय है, यह आवलिका है, यह उत्सर्पिणी है, यह अवसर्पिणी है। इस हेतु से कहा है कि मनुष्य-लोक में गये मनुष्य यह जानते हैं-यह समय है, यह आवलिका है, यह उत्सर्पिणी है, यह अवसर्पिणी है।" "गौतम ! वानव्यंतर, ज्योतिषिक और वैमानिकों के लिए वही समझो जो नैरयिकों के लिए कहा है।" दिगम्बर आचार्यों के अनुसार एक-एक कालाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान स्फुट रूप से पृथक-पृथक् स्थित हैं। वे कालाणु असंख्यात द्रव्य हैं। १७. काल के स्कंध आदि भेद नहीं हैं (गा० २८-३३) : प्रथम ढाल में जीव को असंख्यात प्रदेशी द्रव्य कहा है (१.१) धर्म, अधर्म भी असंख्यात प्रदेशी कहे गये हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी द्रव्य है। पुद्गल संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी हैं। प्रश्न होता है-काल के कितने प्रदेश हैं ? यह बताया जा चुका है कि काल का सूक्ष्मतम अंश समय है। वर्तमान काल हमेशा एक सामान्य रूप होता है। दो समय एक साथ नहीं मिलते। एक समय के विनाश के बाद दूसरा समय उत्पन्न होता है। इस कारण दो समय न मिलने से काल का स्कंध नहीं होता। स्कंध नियम से समुदाय रूप होता है। अतीत समय परस्पर में मिलकर कभी भी समुदाय रूप नहीं हुए। बिछुड़े हुए पुद्गल परमाणुओं के मिलने की संभावना १. भगवती श० ५ उ० ६ २. द्रव्यसंग्रह गा० २२ । पृ० ८५ पाद-टिप्पणी में उद्धृत।
SR No.006272
Book TitleNav Padarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages826
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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