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प्रश्न ८७. अरिहन्त और सिद्ध परमेष्ठी के पदक्रम में व्यावहारिक लोकपक्ष को महत्व दिया गया है, आचार्य और उपाध्याय को भी इस धरातल पर साधु परमेष्ठी से ऊपर स्थापित किया गया है । इसी प्रकार तीर्थंकर अरिहन्त केवली में ४६ गुण माने गये हैं और उनमें से ४२ को मानकर भी अन्ततः पुण्योश्रित कहकर अमान्य कर दिया गया है । इस व्यावहारिक लोकपक्ष के धरातल पर क्या महामन्त्र अकिंचित्कर है?
उत्तर :
यह महामंत्र अपने लक्ष्य में आध्यात्मिक है । परन्तु इसे व्यवहार मार्ग के माध्यम से लक्ष्य तक पहुँचाया गया है । यह महामन्त्र परोक्षत: (देव - देवाङ्गनाओं के माध्यम से) हमारी आध्यात्मिक - यात्रा में बाधा रूप लौकिक समस्याओं का समाधान करता है । हम निजी अनुभव के धरातल पर प्रायः आत्मा, स्वर्ग और मोक्ष के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं । हमारी पूरी जानकारी शास्त्रों और पंडितों के माध्यम से विश्वास मूलक है - ज्ञानमूलक नहीं । दूसरी ओर जो हमारा जन- -सेवा, जन-जीवन, पूजन- भजन, देवदर्शन और मुनिवन्दना का प्रत्यक्ष अनुभव है - जो हमें तृप्ति प्रदान करता है, उसे हम मिथ्यात्व कहने लगे हैं । व्रतारम्भ को व्यर्थ मानने लगे । तब हमारे इस अन्तर्विरोध का क्या इलाज़ है? इस आत्म प्रवञ्चना से कैसे बचा जाए ! स्थूल से साकार से, इन्द्रियगोचर से सहज ग्राह्य से सूक्ष्म, निराकार, अतीन्द्रिय और मानस ग्राह्य अलौकिक शक्ति की और बढ़ना उचित और सहज होगा । जो जीवन हम जीते हैं, अनुभव करते हैं और जो हमारा सामूहिक अनुभव है उसे हम कैसे तुच्छ और हेय कहें ? इस पृथ्वी पर ही हम स्वर्ग और मोक्ष की अवतारणा क्यों नहीं कर सकते ? 1. निष्कर्ष यह है कि हम व्यावहार को जीवन की सर्वोच्च वास्तविकता में क्यों न स्वीकारे ?
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