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________________ महामन्त्र णमोकार अर्थ, व्याख्या (पदक्रमानुसार) के 121 संकल्पात्मक निर्विकल्पता को प्राप्त करना चाहता है। वह सिद्ध परमेष्ठी से उनके दर्शन, गुणानुवाद एवं पूर्णनमन से ही प्राप्त हो सकती है । निर्विकार और परम शान्त अवस्था प्राप्त करने के लिए णमो सिद्धाणं का ध्यान एवं जाप अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । णमो अरिहंताणं में श्वेत रंग के साथ तीन भाव से ध्यान किया जाता है । इससे हमारी मानसिक स्वच्छता और आन्तरिक शक्तियों का उन्नयन होता है । णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान और जाप के समय, लाल रंग के साथ हम सहज ही जुड़ जाते हैं। सिद्ध परमेष्ठी के नमन के समय हमारे मानस पटल पर वह चित्र उभरना चाहिए जबकि सिद्ध परमेष्ठी अष्टकर्मों का दहन कर निर्मल रक्तवर्ण कुन्दन की भांति दैदीप्यमान हो उठते हैं । हमारे शरीर में रक्त की कमी हो अथवा रक्त में दोष आ गया हो तो णमो सिद्धाणं का पंचाक्षरी जाप करना वांछनीय है । ' णमो सिद्धाणं' का ध्यान दर्शन केन्द्र में रक्त वर्ण के साथ किया जाता है । बाल सूर्य जैसा लाल वर्ण । दर्शन केन्द्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण चैतन्य केन्द्र है। लाल वर्ण हमारी आन्तरिक दृष्टि को जागृत करने वाला है। इस रंग की यही विशेषता है कि वह सक्रियता पैदा करता है । कभी सुस्ती या आलस्य का अनुभव हो, जड़ता आ जाए तो दर्शन केन्द्र में दस मिनट तक लाल रंग का ध्यान करें। ऐसा अनुभव होगा कि स्फूर्ति आ गयी है ।"" विशुद्ध दृष्टि से सिद्ध परमेष्ठी ही पंचपरमेष्ठियों श्रेष्ठतम हैं और प्रथम पद के अधिकारी हैं । प्रस्तुत मन्त्र में विवक्षा भेद से या संसारी जीवों के प्रत्यक्ष और सीधे लाभ तथा उपदेश प्राप्ति आदि की दृष्टि से ही अरिहन्त परमेष्ठी का प्रथम स्मरण किया गया है । स्पष्ट है कि अरिहन्तों को भी अन्ततः सिद्ध अवस्था प्राप्त करना ही है । सिद्ध या सिद्धावस्था तो अरिहन्तों द्वारा भी वन्दय है। वास्तव में सिद्ध परमेष्ठी पूर्ववर्ती चार परमेष्ठियों की अवस्थाएं पार कर चुके हैं और अन्य परमेष्ठियों से गुणात्मक धरातल पर आगे हैं । अन्य परमेष्ठियों को अभी सिद्ध अबस्था प्राप्त करना है । अतः सिद्ध परमेष्ठी मात्र का वन्दन, नमन, चिन्तन, स्मरण पंचपरमेष्ठी - वन्दन ही है । फिर भी पूरे मन्त्र के जप, ध्यान एवं भाष्य अवश्य ही विशेष फलदायी 1. "एसो पंच णमोकारो " - पृ० 78 युवाचार्य महाप्रज्ञ
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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