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________________ महामन्ता नमोकार गर्व, याख्या (पदक्रमानुसार) 3 117 & धवला टीका प्रथम भाग में अरिहन्त शब्द की व्याख्या 'रज.. अर्थात् रजोहनन शब्द से की गयी है। इसका आशय यह है कि ज्ञानाकरणी एवं दर्शनावरणी कर्म मानव के विलोंक एवं त्रिकालजीवी विषय बोध के अनुभोक्ता ज्ञान और दर्शन को प्रतिबन्धित कर देते हैं। जैसे धूल भर जाने पर दृष्टि में धुंध छा जाती है उसी प्रकार ये दोनों कर्म मानव का विकास रोक देते हैं। अतः इन्हें नष्ट करने के कारण ही अरिहन्त कहलाते हैं। शेष कर्म तो फिर स्वतः नष्ट होते ही हैं। इसी प्रकार रहस्य अभाव के साथ भी अरिहन्त शब्द का अर्थ किया गया है। रहस्य भाव का अर्थ है अन्तराय कर्म। शास्त्रानुसार अन्तरायकर्म का नाश शेष तीन धातिया कर्मों के अविनाभावी नाश का कारण है। ये व्याख्याएं आचार्यों ने आपेक्षिक दृष्टि से की हैं। सातिशय पूजा अरिहन्तों की होती है इस दृष्टि से भी अरिहन्तों को नमस्कार किया जाना सम्भव है। भगवान के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाग इन पंच कल्याणकों में देवों द्वारा की गयी पूजाएं, मानवों द्वारा की गयो पूजाओं की तुलना में अपना वैशिष्ट्य रखती हैं। निश्चय नयं की दष्टि से सिद्ध अरिहन्तों से अधिक पूज्य हैं क्योंकि वे अष्ट कर्मों को नष्ट करके मुक्ति प्राप्त कर चके हैं। परन्तु अरिहन्तों से जीवमात्र को जो प्रत्यक्ष दर्शन एवं उपदेश का लाभ होता है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक सत्य है। अतः इसी दृष्टि से अरिहन्तों को महामन्त्र में प्राथमिकता दी गयी है। - महामन्त्र में पंच परमेष्ठी को समान रूप से नमस्कार किया गया है, किसी प्रकार का भेद रखकर न्यूनाधिकता से नमन नहीं किया गया है। तथापि मंथन विवक्षा में तो क्रम को अपनाना अनिवार्य होता ही है। इसी प्रकार यह एक प्रकार से स्वयम्भू मन्त्र है-अनादि-अनन्त मन्त्र है अतः इसकी महानता में शंका का कोई महत्त्व नहीं है। हां, इतना जरूर है कि मानव-मन, पद-क्रम के अनुसार अर्थ और महत्ता को घटित करता ही है, वह तर्क का सहारा भी लेता ही है। अरिहन्त 1. 'रजो हननाद्वा अरिहन्ता। ज्ञानदृगावरणानि रजांसीव । रहस्यमावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तरायः । तस्य शेष धातित्रियविनाशाविनाभाविनो भ्रष्ट बीजवन्नि: शक्तीकृता धातिकर्मणो हननादरिहन्ता।' "अतिशय पूजार्हत्वाद् वा अरिहन्ता"- धवलाहीका प्रथम भाग-42
SR No.006271
Book TitleMahamantra Namokar Vaigyanik Anveshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra Jain
PublisherMegh Prakashan
Publication Year2000
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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