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अब निहारें परमाणु-जगत् का ताण्डव-नृत्य ३. आहारक वर्गणा
४. तैजस वर्गणा ५. कार्मण वर्गणा
६. श्वासोच्छ्वास वर्गणा ७. भाषा वर्गणा
८. मनो वर्गणा। इनमें पहली पाँच वर्गणाएँ पाँच प्रकार के शरीरों के निर्माण में उपयोगी होती हैं, शेष तीन वर्गणाएँ क्रमश: श्वास-उच्छ्वास, वाणी और मन की क्रियाओं में काम में आती हैं।
१. औदारिक-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र रूप धातुमय शरीर का निर्माण जिन पुद्गलों से होता है, वे औदारिक वर्गणा के पुद्गल कहलाते हैं। मनुष्य एवं तिर्यंच (पशु, पक्षी, कीट, पतंग एवं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि) जीवों के शरीर औदारिक वर्गणा के पुद्गलों से निर्मित होते हैं।
२. वैक्रिय-भाँति-भाँति के रूप, आकृति (जैसे-छोटा-बड़ा, हल्का-भारी, दृश्य-अदृश्य आदि) आदि करने में समर्थ शरीर का निर्माण वैक्रिय-वर्गणा के पुद्गलों से होता है। देव एवं नारक जीवों को ऐसा शरीर जन्म से ही सहज प्राप्त होता है। वायुकायिक जीव, वैक्रिय-लब्धि (जन्म से नहीं, अपितु विशेष उपक्रम से प्राप्त सामर्थ्य) सम्पन्न मनुष्य और तिर्यंच जीवों को भी यह प्राप्त हो सकता है। वैक्रिय-शरीर रक्त, मांस आदि धातुओं से रहित होता है।
३. आहारक-विशेष तपस्या आदि के उपक्रम से प्राप्त आहारक लब्धि (योग-शक्ति) से निष्पन्न शरीर आहारक वर्गणाओं के पुद्गल से निर्मित होता है। इस शरीर का उपयोग चतुर्दशपूर्व-धर (विशेष ज्ञानी) साधु अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए दूर-संचार (tele-commuuication) में करते हैं। वे अपने ही शरीर में से “आहारक शरीर” का प्रेषण दूरस्थ सर्वज्ञ को करते हैं और जिज्ञासा का समाधान पाते हैं।
४. तेजस—यह प्रत्येक प्राणी के स्थूल शरीर (औदारिक या वैक्रिय) के साथ रहने वाला सूक्ष्म शरीर है, जो निरन्तर जीव के साथ रहता है। मृत्यु के उपरान्त भी (स्थूल शरीर के छूट जाने के बाद भी) तैजस शरीर का साहचर्य बना रहता है। यह तेजोमय परमाणुओं से निष्पन्न होता है, जिसकी तुलना जैव-विद्युत-प्लाज्मा (bio-electrical plasma) के साथ की जा सकती है। तैजस वर्गणा के पुद्गल विद्युत्मय ऊर्जा के रूप में होने के कारण जीव की पाचन-क्रिया में रासायनिक प्रक्रियाओं के लिए जिम्मेवार होते हैं। वैज्ञानिक शब्दावली में कहा जा सकता है कि तैजस विद्युत-रासायनिक ऊर्जा का स्रोत है जो पाचन के लिए आवश्यक है। तैजस शरीर की ऊर्जा का विशेष नियमन कर