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जैन दर्शन और संस्कृति
यहाँ यह ध्यान रखना होगा कि धर्म-द्रव्य और अधर्म-द्रव्य दोनों केवल उदासीन सहायक हैं । न धर्म-द्रव्य किसी द्रव्य को गति में प्रवृत्त करता है और न अधर्म-द्रव्य किसी को स्थिति में प्रवृत्त करता है । यदि कोई जीव या पुद्गल गति या स्थिति करता है, तो ये क्रमशः उसमें सहायक बनते हैं । जैसे मछलियों की गति में जल सहायक होता है या पथिकों को विश्राम करने के लिए वृक्ष की छाया सहायक होती है, वैसे धर्म-अधर्म द्रव्य समस्त गति-स्थिति में अनन्य सहायक होते हैं। गति और स्थिति दोनों सापेक्ष हैं। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व संभव नहीं है ।
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धर्म-अधर्म की तार्किक मीमांसा करने से पूर्व इनका स्वरूप समझ लेना अनुपयुक्त नहीं होगा । वह इस प्रकार है
द्रव्य की दृष्टि से ये दोनों द्रव्य एक अखण्ड, स्वतन्त्र, वस्तुनिष्ठ सत् (objective reality) हैं ।
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क्षेत्र की दृष्टि से ये दोनों समस्त लोक में व्याप्त समरूप सातत्यक (homogeneous continuum) के रूप में हैं । इनका अस्तित्व केवल लोक, आकाश तक सीमित है; अलोक-आकाश में इनका अभाव है। लोक-आकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही प्रदेश इनके हैं । संख्या की दृष्टि से ये प्रदेश असंख्यात हैं । काल की दृष्टि से - इनका अस्तित्व अनादि (beginningless) और अनन्त (endless) है अर्थात् शाश्वत ( eternal) हैं। 1
भाव अर्थात् स्वरूप की दृष्टि से ये अमूर्त (वर्ण आदि गुणों से रहित), अभौतिक और चैतन्य - रहित (अजीव) तथा स्वयं अगतिशील हैं ।
गुण (या लक्षण) की दृष्टि से - धर्म - द्रव्य गति - सहायक तथा अधर्म-द्रव्य स्थिति - सहायक है ।
इन द्रव्यों के विषय में गौतम की जिज्ञासा का समाधान भगवान् महावीर ने इस प्रकार किया था—
गौतम ने पूछा – भगवान् ! गति - सहायक तत्त्व (धर्मास्तिकाय) जीवों को क्या लाभ होता है ?
भगवान् ने कहा—- गौतम ! गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता ? शब्द की तरंगें कैसे फैलती ? आंखें कैसे खुलतीं ? कौन मनन करता ? कौन बोलता? कौन हिलता डुलता ? यह विश्व अचल ही होता । जो चल हैं, उन सबका आलम्बन गति - सहायक तत्त्व ही है 1
गौतम —- भगवान् ! स्थिति - सहायक तत्व (अधर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है ?