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जैन दर्शन और संस्वृति समस्त आकाश-द्रव्य अन्य द्रव्यों के द्वारा अवगाहित नहीं हैं, अत: एक होने पर भी, अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण वह दो भागों में विभाजित हो जाता है
१. लोकाकाश। - २. अलोवरकाश।
आकाश का भाग, जो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-इन पाँच द्रव्यों द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है। शेप भाग, जहाँ आकाश के अतिरिक्त और कोई द्रव्य नहीं होता, वह अलोकाकाश है। लोकाकाश के प्रदेशों की संख्या असंख्यात है, अलोकाकाश के प्रदेशों की संख्या अनन्त हैं। लोंकाकाश एक, अखण्ड, शान्त और असीम है। उसकी सीमा से परे अलौकाकाश एक और अखण्ड है तथा असीम-अनन्त तक फैला हुआ है। ससीम लोक चारों ओर से अनन्त अलोक से घिरा हुआ है।
जब महावीर से उनके प्रमुख शिष्य गौतम द्वारा पूछा गया कि “भगवान् ! अलोक का संस्थान (आकार) कैसा है.?”, भगवान् महावीर ने उत्तर दिया, “हे गौतम ! शुषिर (खाली) गोले में रही हुई पोलाई (रिक्तता) जैसा उसका आकार है।" अर्थात् अलोक एक विशाल गोले के समान है, जिसकी त्रिज्या अनन्त है। इस कथन से यही अर्थ निकलता है कि धर्म, अधर्म आदि पाँच द्रव्यों को धारण करने वाला यह विश्व (लोकाकाश) अनन्त आकाश-समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहाँ पर यह बात ध्यान में रखनी आवश्यक है कि आकाश—लोक और अलोक-एक
और अखण्ड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण ही हम आकाश के दो विभाग करते हैं। अलोकाकाश का अस्तित्व तर्क के आधार पर निम्न प्रकार से सिद्ध किया जा सकता है-लोकाकाश अथवा सक्रिय विश्व के अस्तित्व के विषय में कोई सन्देह नहीं करता, क्योंकि वह इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्षतया जाना जाता है
और सबके द्वारा ग्राह्य है किन्तु यदि लोकाकाश का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, तो अलोकाकाश का अस्तित्व स्वत: प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि तर्कशास्त्र के अनुसार जिसका वाचक पद व्युत्पत्तिमान और शुद्ध होता है, वह पदार्थ सत् प्रतिपक्ष होता है। उदाहरणार्थ-जैसे अघट घट का प्रतिपक्ष है। 'घट' शब्द विधि-वाचक है. अघट निषेधवाचक है। इसी तरह अलोकाकाश लोकाकाश का निषेध-वाचक है. अत: अलोवाकाश का अस्तित्व लोकाकाश के साथ स्वीकृत हो ही जाता है। दिक्
जैन दर्शन के अनुसार दिक् कोई स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, अपितु आकाश का ही एक भाग है। आकाश के जिस भाग से वस्तु का व्यपदेश या निरूपण किया जाता है, वह दिक् कहलाता है।