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________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग २५३ “भवबीज के अंकुर को पैदा करने वाले राग और द्वेष जिनके क्षीण हो चुके हैं, उस वीतराग आत्मा को मैं नमस्कार करता हूँ, फिर उसका नाम ब्रह्मा, विष्णु, महादेव या जिन कुछ भी हो।” वीतरागता और अनेकान्त, ये दोनों अध्यात्म के प्रकाश-स्तम्भ हैं। वीतरागता आत्मा का शुद्ध रूप है। उसकी अनुभूति का क्षण ही आत्मोपलब्धि का क्षण है। अनेकांत सत्य के साक्षात्कार का सशक्त माध्यम है। पौराणिक काल में धर्म की धारणाएं बदल गईं। उसका मुख्य रूप पारलौकिक हो गया। वह वर्तमान से कटकर भविष्य से जुड़ गया। जनमानस में यह धारणा स्थिर हो गई कि धर्म से परलोक सुधरता है, स्वर्ग मिलता है, मोक्ष मिलता है। इस धारणा ने जनता को धर्म की वार्तमानिक उपलब्धियों से वंचित कर भविष्य के सुनहले स्वप्नों के जगत् में प्रतिष्ठित कर दिया। भगवान् महावीर. ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था—“धर्म का फल वर्तमान काल में ही होता है। जिस क्षण में उसका आचरण किया जाता है, उसी क्षण में कर्म का निरोध या क्षय होता है। धर्म का मुख्य फल यही है।" पुण्यवादी धारा के प्रवाह में यह व्याख्या अगम्य हो रही थी तब उमास्वाति ने एक चिन्तन प्रस्तुत किया-“स्वर्ग के सुख परोक्ष हैं, अत: उनके बारे में तुम्हें विचिकित्सा हो सकती है। मोक्ष का सुख उनसे भी अधिक परोक्ष है, अत: उसके विषय में भी तुम संदिग्ध हो सकते हो। किन्तु धर्म से प्राप्त होने वाला शांति का सुख प्रत्यक्ष है। इसे प्राप्त करने में तुम स्वतंत्र हो। यह अर्थ-व्यय से प्राप्त नहीं होता, किन्तु आत्मानुभूति में प्रवेश करने से प्राप्त होता है।" आज यह प्रश्न पूछा जाता है कि इतने धर्मों के होने पर भी मनुष्य इतना अशान्त क्यों? इतना क्रूर क्यों? इतना अनैतिक क्यों? उपासना-प्रधान धर्म के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। संयम-प्रधान धर्म इन प्रश्नों का उत्तर दे सकता है। आचार्य हेमचंद्र ने धर्म की इसी स्थिति पर चिन्तन किया और उन्होंने अनुभव की भाषा में लिखा—हे भगवन् ! तुम्हारी पूजा करने की अपेक्षा तुम्हारे आदेशों का पालन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। तुम्हारे आदेशों का पालन करने वाला सत्य को प्राप्त होता है उनका पालन नहीं करने वाला भटक जाता है।" प्रश्न उपस्थित हुआ, वीतराग का आदेश क्या है? आचार्य ने उत्तर दिया-"उनका आदेश है संवर-मन का संवरण, वाणी का संवरण, काया का संवरण और श्वास का संवरण ।" साधन-शुद्धि आध्यात्मिक जगत् कां साध्य है-आत्मा की पवित्रता और उसका साधन भी वही है। साध्य और माधन की एकता के विचार को आचार्य भिक्षु ने जो
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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