SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिन्तन के विकास में जैन आचार्यों का योग २५१ पहुँचती है। परमार्थदर्शी की दृष्टि (निश्चयनय) में आत्मा ही सब कुछ है। आचार्य कुन्दकुन्द का तर्क है कि “अशुभ और शुभ दोनों ही कर्म जीव को बांधते हैं, मुमुक्षु व्यक्ति के लिए दोनों ही वांछनीय नहीं हैं।" विक्रम की सातवीं शताब्दी में भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पुण्य और पाप को इसी कोण से देखा। उन्होंने सुख-दुःख की मीमांसा करते हुए लिखा-“पुण्य का फल दुःख है क्योंकि वह कर्म का उदय ही है। जैसे कर्म का उदय होने के कारण पाप का फल दुःख होता है।" _ विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु ने पुण्य और पाप की निश्चयनय से मीमांसा की। उन्होंने लिखा-पुण्य वांछनीय नहीं है। उसकी इच्छा करने से भी पाप का बंध होता है। जैसे-जैसे न्यायशास्त्र या तर्कशास्त्र का विकास होता गया, वैसे-वैसे साम्प्रदायिक अभिनिवेश और वाद-विवाद बढ़ता गया। जैन आचार्यों के सामने लोकैषणा और लोकसंग्रह का प्रश्न गौण था, अहिंसा का प्रश्न मुख्य। वे तर्क के क्षेत्र में प्रवेश करके भी अहिंसा को नहीं छोड़ सकते थे। उन्होंने तर्क पर अध्यात्म के अंकुश को रखना सदा पसंद किया। आचार्य सिद्धसेन महान् तार्किक थे। उन्होंने जैन परम्परा को तार्किक दृष्टि से समृद्ध किया था। फिर भी विवाद और वितण्डा उन्हें काम्य नहीं थे। अहिंसा या अध्यात्म के सिद्धान्त में विश्वास करने वाला इसी भाषा में सोचेगा और बोलेगा। उन्होंने अपने समय की स्थिति का विश्लेषण करते हुए लिखा है-“श्रेय किसी दूसरी दिशा में है और हमारे धुरंधर वादी (तर्क के आधार पर वाद-विवाद करने वाले) किसी दूसरी दिशा में जा रहे हैं। किसी भी मुनि ने वाक्-युद्ध को शिव (मोक्ष) का उपाय नहीं बतलाया है।" सिद्धसेन, समंतभद्र, अकलंक आदि आचार्यों ने अनेकांत के बीज को विकसित किया वैसे ही हरिभद्रसूरि ने समाधि-योग का बीज विकसित किया। महर्षि पतंजलि के योगदर्शन की प्रसिद्धि के बाद प्रत्येक दर्शन की साधना-पद्धति योग के नाम से प्रसिद्ध हो गई। जैन धर्म की साधना-पद्धति योग के नाम से प्रसिद्ध हो गई। जैन धर्म की साधना-पद्धति का नाम मोक्षमार्ग था। हरिभद्रसूरि ने मोक्षमार्ग को योग के रूप में प्रस्तुत किया। इस विषय में योगविंशिका, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगशतक उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। उन्होंने योग की परिभाषा इस प्रकार की—“धर्म की समग्र प्रवृत्ति, मोक्ष के साथ योग कराती हैं, इसलिए वह योग है।" इसमें महर्षि पतंजलि की 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', गीता की 'समत्वं योग उच्चयते', 'योग: कर्ममु कौशलम्' इन सब परिभाषाओं की समन्विति है।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy