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भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
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अनावृत कर भगवान् ने धर्म को आकाश की भाँति आापक बना दिया । 'प्रत्येक-बुद्ध-सिद्ध' का सिद्धान्त भी साम्प्रदायिक दृष्टि के प्रति मुक्त विद्रोह है । 'प्रत्येक - बुद्ध' किसी सम्प्रदाय से प्रभावित तथा किसी धर्म परम्परा से प्रतिबद्ध होकर प्रव्रजित नहीं होते । वे अपने ज्ञान से ही प्रबुद्ध होते हैं । भगवान् ने उनको उतनी ही मान्यता दी, जितनी अपनी परम्परा में प्रव्रजित होने वालों को प्राप्त थी ।
जो लोग अपने धर्म की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करते थे, उनके सामने महावीर ने कटु सत्य प्रस्तुत किया । भगवान् ने कहा – 'जो ऐसा करते हैं, वे धर्म के नाम पर अपने बंधन की श्रृंखला को और अधिक सुदृढ़ बना रहे हैं ।' - ' भंते! शाश्वत धर्म कौन-सा है ? '
भगवान् महावीर से पूछा गया - ' भगवान् ने कहा – 'किसी भी प्राणी को मत मारो, उपद्रुत मत करो, परितप्त मत करो, स्वतन्त्रता का अपहरण मत करो - यह शाश्वत धर्म है ।'
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भगवान् महावीर ने कभी नहीं कहा कि जैन धर्म शाश्वत है । तत्त्व शाश्वत हो सकता है, किन्तु नाम और रूप कभी शाश्वत नहीं होते ।
भगवान् महावीर का युग धर्म के प्रभुत्व का युग था । उस समय पचासों धर्म सम्प्रदाय थे । उनमें कुछ तो बहुत ही प्रभावशाली थे । कुछ शाश्वतवादी थे और कुछ अशाश्वतवादी । शाश्वतवादी अशाश्वतवादी सम्प्रदाय पर प्रहार करते और अशाश्वतवादी शाश्वतवादी धारा पर । इस पद्धति को महावीर ने साम्प्रदायिक अभिनिवेश की संज्ञा दी ।
नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा
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भगवान् महावीर का युग क्रियाकाण्डों का युग था । महाभारत की ध्वंस-लीला का जनमानस पर अभी असर मिटा नहीं था । जनता त्राण की खोज में भटक रही थी। अनेक दार्शनिक उसे परमात्मा की शरण में ले जा रहे थे । समर्पण का सिद्धान्त बल पकड़ रहा था । श्रमण परम्परा इसका विरोध कर रही थी । भगवान् पार्श्व के निर्वाण के बाद कोई शक्तिशाली नेता नहीं रहा, इसलिए उसका स्वर जनता का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पा रहा था । भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध ने उस स्वर को फिर शक्तिशाली बनाया ।
भगवान् महावीर ने कहा - 'पुरुष ! तेरा त्राण तू ही है। बाहर कहाँ त्राण ढूँढ रहा है? इस आत्मकर्तृत्व की वाणी ने भारतीय जनमानस में फिर एक बार पुरुषार्थ की लौ प्रज्वलित कर दी श्रमण परम्परा ने ईश्वर - कर्तृत्व को मान्यता नहीं दी। इसलिए उसमें उपासना या भक्तिमार्ग का विकास नहीं हुआ । भगवान् महावीर के धार्मिक निरूपण में आध्यात्मिक और नैतिक सिद्धान्त हैं । उसमें उपासना और भक्ति के सिद्धान्त नहीं हैं ।
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