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- जैन दर्शन और संस्कृति “अज्ञानी क्या करेगा जबकि उसे श्रेय और पाप का ज्ञान भी नहीं होता इसलिए पहले सत्य को जानो और बाद में उसे जीवन में उतारो।"
भारतीय दार्शनिक पाश्चात्य दार्शनिक की तरह केवल सत्य का ज्ञान ही नहीं चाहता, वह चाहता है-मोक्ष। उपनिषद् के एक प्रसंग में मैत्रेयी याज्ञवल्वय से कहती है—“जिससे मैं अमृत नहीं बनती, उसे लेकर क्या करूँ? जो अमृतत्त्व का साधन हो, वही मुझे बताओ।” जैन आगम उत्तराध्ययन सूत्र के एक प्रसंग में कमलावती इषुकार को सावधान करती है—“हे नरदेव ! धर्म के सिवाय अन्य कोई भी वस्तु त्राण नहीं है।" मैत्रेयी अपने पति से मोक्ष के साधनभूत अध्यात्म-ज्ञान की याचना करती है और कमलावती अपने पति को धर्म का महत्त्व बताती है। इस प्रकार धर्म की आत्मा में प्रविष्ट होकर वह आत्मवाद अध्यात्मवाद बन जाता है। यही स्वर उपनिषद् के ऋषियों की वाणी में से निकला—“आत्मा . ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है।" तत्त्व यही है कि दर्शन का प्रारम्भ आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष में। सत्य का ज्ञान उसका शरीर है और सत्य का आचरण उसकी आत्मा। धर्म-दर्शन
धर्म-दर्शन की चिंतन-धारा चार बिन्दुओं पर आधारित है : १. बंध। २. बंध-हेतु (आश्रव)।
३. मोक्ष। . ४. मोक्ष-हेतु (संवर-निर्जरा)।
संक्षेप में तत्त्व दो हैं—आस्रव और संवर, इसलिए काल-क्रम के प्रवाह में बार-बार यह वाणी मुखरित हुई है :
"आस्रवो भवहेतु: स्यात्, संवरो मोक्षकारणम्।
इतीयमाहती दृष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥" "भव (संसार-दशा मे आत्मा की अवस्थिति) का हेतु है—आस्रव और मोक्ष का कारण है—संवर। संक्षेप में यही है आर्हती दृष्टि (जैन दर्शन)। शेष सब इसी का विस्तार है।" __यही तत्त्व वेदांत में अविद्या और विद्या शब्द के द्वारा कहा गया है :
"अविद्या यन्धहेतुः स्यात्, विद्या स्यात् मोक्षकारणम्। ममेनि बध्यते जन्तुः न ममेति विमुच्यते ।।"