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मैं हूँ अपने भाग्य का निर्माता
१३१ जीव शरीर का निर्माता है। क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है। शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म का बन्ध करता है। कर्म-बन्ध के क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कारण भी बतलाए हैं।
बंध का अर्थ है-आत्मा और कर्म का संयोग और कर्म का निर्मापणव्यवस्थाकरण । बंध आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है।
बन्ध चार प्रकार का है—प्रदेश, प्रकृति, स्थिति और अनुभाग (या अनुभाव)।
१. प्रदेश ग्रहण के समय कर्म-सम्बन्ध अविभक्त होते हैं। ग्रहण के पश्चात् वे आत्मप्रदेशों के साथ एकीभूत होते हैं। यह प्रदेश-बंध (या एकीभाव की व्यवस्था) है।
२. प्रकृति-वे कर्म-परमाणु कार्य-भेद के अनुसार आठ वर्गों में बँट जाते हैं। इसका नाम प्रकृति-बंध (स्वभाव-व्यवस्था) है। कर्म की मूल प्रकृतियाँ (स्वभाव) आठ हैं—१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र, ८. अन्तराय। (ये क्या करते हैं, इसकी चर्चा आगे की जाएगी। - ३. स्थिति—यह काल-मर्यादा की व्यवस्था है। प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ निश्चित समय तक ही रह सकता है। स्थिति पकने पर वह उदय में आकर आत्मा से अलग हो जाता है। यह अवधि (कालमान) का निर्धारण स्थिति-बंध है। .
४. अनुभाग–यह फलदान-शक्ति की व्यवस्था है। इसके अनुसार उन पुद्गलों में रस की तीव्रता और मंदता का निर्माण होता है। यह तीव्रता-मंदता का निर्धारण अनुभाग-बन्ध है। इसे रस या विपाक बन्ध भी कहते हैं। -
___बंध के चारों प्रकार एक साथ ही होते हैं। कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं। आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से 'प्रदेश-बंध' सबसे पहला है। इसके होते ही उनमें स्वभाव-निर्माण, काल-मर्यादा और फलशक्ति का निर्माण हो जाता है। इसके बाद अमुक अमुक स्वभाव, स्थिति और रस-शक्ति वाला पुद्गल-समूह अमुक-अमुक परिमाण (मात्रा या quantity) में बँट जाता है। यह परिमाण-विभाग भी प्रदेश-बंध है। बंध के वर्गीकरण का मूल बिन्दु स्वभाव-निर्माण है। स्थिति और रस का निर्माण उसके साथ-साथ हो जाता है। परिमाण-विभाग इसका अन्तिम विभाग है। कर्म : स्वरूप और कार्य |
इसमें चार कोटि की पुद्गल-वर्गणाएं चेतना और आत्मशक्ति की आवारक (ढकने वाली), विकारक (विकृत करने वाली) और प्रतिरोधक (रोकने वाली) हैं। चेतना के दो रूप हैं