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________________ मैं कौन हूँ ? ९७ १५. पूर्व संस्कार की स्मृति - आत्मा में संस्कारों का भंडार भरा पड़ा है। उन संस्कारों की स्मृति होती रहती है । इस प्रकार भारतीय आत्मवादियों ने बहुमुखी तर्कों द्वारा आत्मा और पुनर्जन्म का समर्थन किया है । आत्मा चेतनामय अरूपी सत्ता है। उपयोग ( चेतना की क्रिया) उसका लक्षण है। ज्ञान-दर्शन, सुख-दुःख आदि द्वारा वह व्यक्त होता है । वह विज्ञाता है । वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श नहीं है । वह लम्बा नहीं है, छोटा नहीं है, टेढ़ा नहीं है, गोल नहीं है, चौकोना नहीं है, मंडलाकार नहीं है । वह हलका नहीं है, भारी नहीं है, स्त्री और पुरुष नहीं है । कल्पना से उसका माप किया जाए, तो वह असंख्य परमाणु जितना है । इसलिए वह ज्ञानमय असंख्य प्रदेशों का पिण्ड है । वह अरूप है; इसलिए देखा नहीं जाता । उसका चेतना गुण हमें मिलता है । गुण से गुणी का ग्रहण होता है । इससे उसका अस्तित्व हम जान जाते हैं । वह एकान्ततः वाणी द्वारा प्रतिपाद्य और तर्क द्वारा गम्य नहीं है । जैन- दृष्टि से आत्मा का स्वरूप १. जीव स्वरूपतः अनादि-अनन्त और नित्य - अनित्य जीव अनादि-अनन्त (न आदि और न अन्त) है । अविनाशी और अक्षय है । द्रव्य-नय की अपेक्षा से उसका स्वरूप नष्ट नहीं होता, इसलिए नित्य है और पर्याय-नय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न वस्तुओं में वह परिणत होता रहता है, इसलिए अनित्य है । २. संसारी जीव और शरीर का अभेद जैसे पिंजड़े से पक्षी, घड़े से बेर और गंजी से आदमी भिन्न होता है, वैसे ही संसारी जीव शरीर से भिन्न होता है । जैसे दूध और पानी, तिल और तेल, कुसुम और गंध - ये एक लगते हैं, वैसे ही संसार दशा में जीव और शरीर एक लगते हैं । ३. जीव का परिमाणे जीव का शरीर के अनुसार संकोच और विस्तार होता है । जो जीवन हाथी के शरीर में होता है, वह कुन्थु (एक बहुत छोटे कीट) के शरीर में भी उत्पन्न हो जाता है। संकोच और विस्तार - दोनों दशाओं मैं प्रदेशसंख्या, अवयव संख्या समान रहती है । '' ४. आत्मा और काल की तुलना - अनादि - अनन्त की दृष्टि से
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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