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करें, यदि वे नहीं करते हैं तो श्रमण धर्म से च्युत हो जाते हैं। यदि दोष लगा है तो भी और दोष न लगा है तो भी अवश्य ही प्रतिक्रमण करना चाहिए क्योंकि प्रथम और चरम तीर्थंकर के शासन में प्रतिक्रमण सहित धर्म ही प्ररूपित किया गया है। श्रावकों के लिए भी आवश्यक की जानकारी आवश्यक है। आवश्यक के छह प्रकार हैं
१. सामायिक-समभाव की साधना २. चतुर्विंशतिस्तव- तीर्थंकर देव की स्तुति ३. वन्दन- सद्गुरुओं को नमस्कार ४. प्रतिक्रमण-दोषों की आलोचना ५. कायोत्सर्ग-शरीर के ममत्व का त्याग ६. प्रत्याख्यान-आहार आदि का त्याग साधक के लिए सर्वप्रथम समता का पालन करना आवश्यक है। समता को अपनाये बिना सद्गुणों का विकास नहीं हो सकता और न अवगुणों से ग्लानि ही हो सकती है।
१. सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाण, कारणजाए पडिक्कमणं ॥
-आवश्यक नियुक्ति, गा. १२४४ २. सामाइयं, चउवीसत्थओ, वंदणयं, . पडिक्कमणं, काउसग्ग, . पच्चक्खाणं।
-अनुयोगद्वार