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________________ अनुवादादरवीप्सा, भृषार्थविनियोग हेत्वसूयासु। ईषत्संभ्रमविस्मय, गणनस्मरणे न पुनरुक्तम् ॥ प्रतिक्रमण यह एक स्मरण है, आत्म-चिन्तन है । यदि इसमें एक ही पाठ अनेक बार आता है तो वह दोष नहीं है, दूसरी बात विशेष ध्यान देने की यह है कि जो पाठ दूसरी बार आते हैं वे भी किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये ही आते हैं। प्रतिक्रमण का कालमान एक मुहर्त का माना गया है। आगम साहित्य में यद्यपि काल की चर्चा नहीं है तथापि उत्तरवर्ती साहित्य में इस पर विचार किया गया है, जो शास्त्रीय दृष्टि से उचित भी है। छद्मस्थ की एकाग्रता की स्थिति अन्तर्मुहर्त प्रमाण है, अतः एकाग्रता की दृष्टि से यह काल निर्णय किया है। कितने ही आचार्यों की यह भी धारणा है कि जिनके काल के सम्बन्ध में आगमों में निर्णय नहीं है उनका काल अन्तर्मुहूर्त समझना चाहिए । जैसे- नमुक्कारसी, सामायिक आदि का । प्रतिक्रमण किस समय करना चाहिए, इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि दिन की समाप्ति पर दैवसिक प्रतिक्रमण करना चाहिए और रात्रि के पूर्ण होने पर रात्रिक प्रतिक्रमण करना चाहिए । पक्ष के अन्त में पाक्षिक प्रतिक्रमण करना चाहिए, चार माह के पूर्ण होने पर
SR No.006269
Book TitleShravak Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushkarmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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