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जहाँ जन्म नहीं, जरा नहीं, मरण नहीं, भय नहीं, रोग नहीं, शोक नहीं, भूख नहीं, तृषा नहीं, चाकर नहीं, ठाकुर नहीं, मोह नहीं, माया नहीं, कर्म नहीं, काया नहीं, दुःख नहीं, दारिद्र नहीं, एक में अनेक, ज्योति में ज्योति विराजमान हैं। ऐसे अनन्त सिद्ध भगवन्तों को मैं एक हजार आठ बार ‘तिक्खुत्तो' के पाठ से वन्दना एवं नमस्कार करता हूँ तथा जानते-अनजानते किसी भी प्रकार की अविनय एवं आशातना हुई हो तो तीन करण और तीन योग से क्षमा चाहता हूँ।
सवैया सकल करम टाल, वश कर लियो काल, मुगति में रह्या माल, आतमा को तारी है। देखत सकल भाव, हुवा है जगत् राव,
सदा ही क्षायिक भाव, भये अविकारी है। १०२
श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र