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सन्देश का हम एकांगी अर्थ ही समझते हैं। वास्तव में यह सन्देश सहयोगपरक है। ठीक है, हम किसी के जीवन में अवरोध उत्पन्न नहीं करें, किन्तु साथ ही उसे वांछित सहयोग भी दें जिससे हमारी तरह वह भी सुखी और उन्नत जीवन जी सके।
भगवान महावीर के इस उपदेश में जैन धर्म का जीवन-सन्देश निहित है; जिसका आधार है पारस्परिक सहयोग। प्राणी मात्र के साथ सहयोग, परस्पर उपकार, चाहे वह प्राणी कितना भी क्षुद्र अथवा विशाल हो, इस सन्देश की अन्तर्निहित अनुस्यूत भावना है।
भगवान महावीर का यह सबसे मुख्य व आधारभूत सिद्धान्त है कि तुम इस संसार में सिर्फ अपने लिए ही नहीं जीते हो, किंतु दूसरों के लिए भी जीते हो; आत्म-सापेक्ष नहीं, किन्तु पर-सापेक्ष बनकर जीना ही मानव जीवन है। यदि प्रत्येक मनुष्य या प्रत्येक प्राणी एक-दूसरे के सुख-दुःख का ध्यान रखकर चले तो कोई किसी की जीवन यात्रा में बाधक तो होगा ही नहीं किन्तु साधक और सहयोगी बनेगा।