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"कर्मण्येवाधिकारस्ते" में भी आत्म-स्वातंत्र्य का कुछ स्वर सुनाई देता है लेकिन वहाँ भी इसे कर्म करने तक ही सीमित कर दिया गया है। जबकि जैन दर्शन के आत्म-स्वातंत्र्य की कोई सीमा नहीं, कोई मर्यादा नहीं, इस पर किसी प्रकार का बंधन नहीं। यह आत्मा के अबाधित, मर्यादाहीन स्वातंत्र्य की उद्- घोषणा करता है। यही जैन धर्म के आत्म-स्वातंत्र्य की विशेषता है।
जैन धर्म के अनुसार आत्मा अपने पुरुषार्थ से असीमित उन्नति करके स्वयं परमात्मा बन सकता है, जबकि अन्य दर्शनों में ईश्वर कृपा प्राप्ति तक ही इसकी सीमा निर्धारित कर दी गई है। वहाँ सिद्धान्त है कि जीव कितना भी पुरुषार्थ कर ले, जीव ही रहेगा, परमात्मा नहीं बन सकता, परमात्मा बनने की उसमें शक्ति ही नहीं है।
लेकिन जैन धर्म में उसके (आत्मा के) स्वातंत्र्य की पूर्ण रक्षा की गई है। उसकी शक्ति अनन्त बताई गई है। वह अनन्त ज्ञान-दर्शनसुख और वीर्य का अधिकारी है। उसमें यह