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________________ प्रगट रूप है। लोभ आदि मानसिक स्तर पर , होते हैं, वे अदृश्य रहते हैं, दिखाई नहीं देते; उनका प्रगट रूप बाह्य वस्तुओं में दिखाई देता है। __ ऐसा भी होता है कि बाह्य परिग्रह की मात्रा तो अल्प है किन्तु मन में लालच भरा है, इच्छाएँ जोर मार रही हैं कि अमुक वस्तु भी मेरे पास होनी चाहिए और अमुक भी; लेकिन विवश है, उनको खरीदने के, प्राप्त करने के साधन उसके पास नहीं है। ऐसा अतृप्त व्यक्ति भी परिग्रही है। उसके हृदय में न शांति है और न सन्तोष। अपितु हाय-हाय लगी हुई है। इसी कारण जैन धर्म ने जीवन-सन्देश के रूप में अपरिग्रह को स्थापित किया और कहा-लोभो संतोसओ जिणे-लोभ को संतोष द्वारा जीतना चाहिए। मन-मस्तिष्क में संतोष की अवस्थिति होते ही लोभ की भावना पलायन कर जाती है और साथ ही वस्तुओं के संग्रह की इच्छा भी समाप्त हो जाती है। . परिग्रह का सामाजिक प्रभाव भी दुष्प्रभाव के रूप में सामने आता है । धन का एकत्रीकरण
SR No.006268
Book TitleJain Dharm Ka Jivan Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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