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(२०) हैं, जिन्हे किसी भी विरोधी व विपक्ष पर 'छू' करके छोड़ देते हैं । वे युवकों को नाना प्रलोभन देकर, सरसब्ज बाग दिखाकर 'दिग्भ्रांत किये रखते हैं । इस मृगतृष्णा में पड़ा युवक न तो अपना स्वतन्त्र चिन्तन कर कुछ निर्माण कर सकता है और न ही उनके चंगुल से छूटने का साहस ही दिखा सकता है । दूसरों के इशारों पर कलाबाजी दिखाना और विद्रोह-विध्वंस में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते रहना-यह युवा-शक्ति के लिए शर्म की बात है । अब विद्रोह और विध्वंस का नहीं किन्तु निर्माण का रास्ता अपनाना है । यद्यपि विध्वंस करना सरल है, निर्माण करना कठिन है । किसी भी सौ-दो सौ वर्ष पुरानी इमारत को एक धमाके के साथ गिराया जा सकता है, किन्तु फिर से निर्माण करने में बहुत समय और शक्ति लगती है।