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अपना विकास कर लेता है और फूल तथा फल देने में समर्थ हो जाता है । इस अवस्था में स्वाभाविक ही रक्त में उष्णता, स्फूर्ति और प्रवाहशीलता अधिक होती है, इसलिए मनुष्य का शरीर कष्ट सहने में अधिक सक्षम रहता है, काम करने में फुर्तीला और समर्थ रहता है । बचपन में जो बल-शक्ति घुटनों में थी, वह अब हृदय में संचारित हो जाती है, इसलिए युवक में साहस और शक्ति का प्रवाह बढ़ने लगता है । बाल्यकाल में यदि शिशु अच्छे संस्कार व अच्छी आदतें सीख लेता है, खान-पान आदि के संयम के साथ रहता है तो युवा अवस्था में उसमें अद्भुत शक्ति व स्फूर्ति प्रकट होती है, उसके शरीर में संचित वीर्य, ओज, तेज बनकर उसके तेजस्वी, प्रभावशाली और सुदर्शन व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, इसलिए माता-पिता, जो अपनी सन्तान को तेजस्वी बनाना चाहते हैं, आकर्षक