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(३०) दृढ़ीभूत और घनीभूत होनी चाहिए जो
अन्य प्रभावों से अप्रभावित रहे ।
का ।
श्रमणाचार,
इसके उपरान्त स्थान है भावना आगमों में दृढ़चरित्री श्रमणों के लिए एक शब्द आता है- भावितात्मा; ऐसा श्रमण जिसका अन्तर्मन - आत्मा ध्यान, जप, धर्म आदि से भावित हो चुका है - साधना उसकी रग-रग में, मांसपेशियों में, अस्थि और मज्जा में समा गई है, एकाकार हो गई है ।
मंत्र - साधना में भी भावना का यही रूप अपेक्षित है । साधक मंत्र के शब्दों में, उच्चारण में तल्लीन हो जाय, तादात्म्य हो जाय, एकाकार हो जाय, सांस लेते समय और छोड़ते समय प्रत्येक श्वासोच्छ्वास पर मंत्र 'पद को उच्चारण करता रहे, उसे ही अनुभव करता रहे अर्थात् उसका श्वासोच्छवास मंत्र की ध्वनि से गुंजित