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(२२) तथा उत्साह की अनुभूति होने लगती है। (१२) वीर्यशक्ति की अनुभूति संकल्प की दृढ़ता, इच्छाशक्ति की प्रभावोत्पादकता के रूप में प्रस्फुटित होती है। (१३) महामंत्र की साधना, आध्यात्मिक दोषों-राग-द्वेष, विषय-कषाय, ईष्र्या-द्वेष आदि विकारों पर कुठाराघात करके उन्हें क्षीणप्राय करती है । जैसे गर्म लोहे पर पड़ता हथोड़ा उसको दबाता हुआ मन-इच्छित रूप में ढालता है वैसे ही मंत्र का ध्यानरूपी हथोड़ा विकारों को दवाता हुआ उन्हें सात्विक रूप में ढाल देता है । परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक रोग भी उपशांत हो जाते हैं । साधक को शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता तथा स्फूर्ति की उपलब्धि होती है ।
आज के मनोविज्ञानशास्त्री और चिकित्सा- शास्त्री भी इस तथ्य को स्वीकार