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जीवन एक साफ-सुथरा सपाट राज-मार्ग नहीं है । इसमें अनेक रोड़े हैं; अवरोध हैं । कभी खुशी तो कभी गम । सुख-दुख, आशा-निराशा, हर्ष-शोक का संगम है यह जीवन ।
जीवन के इस त्रिवेणी संगम में-सुखों में अत्यधिक हर्षित न होना और दुःखों की मार से प्रताड़ित न होना । सुख और दुःख में सम बने रहना, यहीसफल जीवन की कला है, जो समत्व की साधना से प्राप्त होती है।
समत्व जब हृदय में, मन-मस्तिष्क में प्रतिष्ठित हो जाता है तो दुःखों की पीड़ा, अभावों का कष्ट, पारिवारिक कलह-क्लेश तथा राजनीतिक उथल-पुथल व्यक्ति को अधिक प्रभावित नहीं कर पाते । उसमें एक माध्यस्थ्य भाव आ जाता है । इस माध्यस्थ्य भाव के आधार पर भी
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