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12... शंका नवि चित्त धरिये !
समाधान- मूर्तिपूजा में चारों प्रकार के धर्म की आराधना होती है । दानधर्म- चार प्रकार के दान में सुपात्र - दान सर्वश्रेष्ठ दान है। इसके दो भेद हैं- 1. अकर्मी (कर्म रहित ) सुपात्रदान 2. सकर्मी (कर्म सहित) सुपात्रदान। पात्र के भी दो प्रकार हैं- 1. रत्नपात्र और 2. स्वर्णपात्र । अरिहन्त एवं सिद्ध परमात्मा आशा तृष्णा एवं कर्म रहित होने से रत्नपात्र हैं, उन्हें उत्तम द्रव्य समर्पित करना अकर्मी सुपात्रदान कहलाता है। अतः परमात्मा के सम्मुख द्रव्य पूजा करने से सर्वप्रथम दानधर्म का पालन होता है ।
शील धर्म- इन्द्रियों को वश में रखना शील धर्म है। जब कोई साधक भाव युक्त होकर पूजा करता है तब पाँचों इन्द्रियाँ संवर भाव को प्राप्त होती है। पूजा करते समय व्यक्ति सहजतया मैथुन आदि भावों से विरत रहता है। इससे निश्चित रूप से शील धर्म का पालन होता है।
तप धर्म- तप के मुख्य दो प्रकार हैं बाह्य तप एवं आभ्यंतर तप जिन प्रतिमा की पूजा करते समय चारों आहार का त्याग होने से बाह्य तप और जिनेश्वर परमात्मा का विनय, वैयावच्च, ध्यान आदि करने से आभ्यंतर तप इस प्रकार दोनों प्रकार के तप का पालन होता है ।
भावनाधर्म- उत्तम भावों से वासित होते हुए बारह प्रकार की भावना का चिंतन करना भावना धर्म है । जिनपूजा करते हुए संसार के प्रति अनासक्ति का वर्धन करने वाले भाव स्वभावतया उत्पन्न हो जाते है। अतः भावनाधर्म का भी पालन हो ही जाता है।
इस प्रकार जिन पूजा में चारों प्रकार के धर्म का समावेश हो जाता है। शंका- श्रावक के बारह व्रतों में जिन पूजा किस व्रत के अन्तर्गत आती है?
समाधान - श्रावक के लिए जिनपूजा एक आवश्यक कर्तव्य है । जो व्यक्ति यह मानता है कि देवों में मात्र अरिहंत परमात्मा ही पूजनीय एवं वंदनीय है वह सम्यगदृष्टि जीव कहा जाता है । बारह व्रतों का मूल सम्यक्त्व है अतः जिनपूजा यह बारह व्रतों का सार है।
शंका- जिन प्रतिमा की पूजा करने से क्या लाभ?
समाधान- आचार्य हरिभद्रीय रचित पूजाविधि विंशिका के अनुसार तीर्थंकर भगवान की पूजा से इस जन्म के पापों का क्षय होता है, पुण्यानुबंधी