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________________ 8...सज्जन तप प्रवेशिका अभिव्यक्त करता है। तप के बिना न निग्रह संभव है न अभिग्रह शास्त्रानुसार केवल आहार का त्याग करना ही तप नहीं है प्रत्युत विषय-वासना, कषाय आदि कलुषित भावों का त्याग करना ही तप है। भोजन आदि का परित्याग बाह्य तप है तथा वासनादि प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण करना आभ्यन्तर तप कहलाता है। तप अन्तर्मानस में पल्लवित हुए या हो रहे विकारों को जलाकर भस्म कर देता है और साथ ही मिथ्यात्वादि से आच्छादित अज्ञान रूपी अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिए तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है। तप एक ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्र छाया में साधना के अमृत फल प्राप्त होते रहते हैं। पूर्वाचार्यों ने तप की महिमा का संगान करते हुए कहा है कि - यद्रं यदुराराध्यं, यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत् सर्वं तपसा साध्यं, तपो हि दुरतिक्रमम् ।। (आचारदिनकर, भा.2, पृ. 334) जो वस्तु अत्यन्त दूर है, अत्यन्त दुस्साध्य है और कष्ट द्वारा आराधी जा सकती है वे सब वस्तुएँ तपश्चर्या द्वारा ही साध्य होती हैं, क्योंकि तपश्चर्या का प्रभाव दुरतिक्रम है अर्थात उसका उल्लंघन कोई कर नहीं सकता। इसी क्रम में आचार्य वर्धमानसूरि यह भी कहते हैं कि जो व्यक्ति शिवकुमार की तरह गृहस्थ आश्रम में रहते हुए भी तपस्या का आचरण करता है वह देव सभा में कान्ति, द्युति, महत्ता और स्फूर्ति को प्राप्त करने वाला (देव) होता है। जैसे- अग्नि के प्रचण्ड ताप में तप कर सुवर्ण उज्ज्वलता, सर्व धातुओं में विशिष्टता एवं श्रेष्ठता को प्राप्त करता है, उसी प्रकार तप करने वाला मनुष्य सर्वोच्च एवं विशिष्ट स्थान को प्राप्त करता है। तप से समग्र कर्मों का भेदन होता है तथा विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। शास्त्रों में नंदीषेण नामक ब्राह्मण का कथानक आता है कि वह सर्वत्र महादुर्भागी माना जाता था, किन्तु चारित्रपूर्वक क्षमा युक्त तप करने से देव एवं मनुष्यों के द्वारा पूजा गया। एक जगह कहा गया है कि अथिरं पि थिरं वंकंपि, उज्जुअं दुल्लहं पि तह सुलहं । दुसझं पि सुसज्झं, तवेण संपज्जए वज्जं ।।
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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