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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...215 आयु अन्तर्मुहूर्त की होती है। अन्तर्मुहूर्त अर्थात् दो समय से दो घड़ी (48 मिनिट) के भीतर का काल इन दो घड़ी के अन्तराल में निगोद के जीव अनेक बार जन्म-मरण कर लेते हैं तथा अनन्तकाल तक इस स्थिति को भोगते रहते हैं। आगमकारों ने जन्म और मृत्यु की वेदना असह्य बतलायी है।
यह तप निगोद (तिर्यञ्च गति) की आयु का बंध न हो, उस निमित्त किया जाता है। इस तप के फल से निगोद स्थिति का क्षय अथवा निगोद गति का द्वार बन्द हो जाता है।
वर्तमान में यह तप विशेष रूप से प्रचलित है। इसकी अद्य प्रचलित विधियाँ इस प्रकार है -
प्रथम विधि - इस तप में सर्वप्रथम एक उपवास करके एकासना से पारणा करें। फिर बेला करके एकासना करें। फिर निरन्तर तीन उपवास (तेला) करके एकासना करें। तत्पश्चात पुन: बेला करके एकासना करें। फिर पुनः उपवास करके एकासना करें।
इस प्रकार 14 दिनों में यह तप पूर्ण होता है।
द्वितीय विधि - दूसरे प्रकार के अनुसार प्रथम एक उपवास करके एकासना करें। फिर निरन्तर दो उपवास (बेला) करके एकासना करें। फिर निरन्तर तीन उपवास (तेला) करके एकासना करें। फिर निरन्तर चार उपवास (चौला) करके एकासना करें। फिर निरन्तर पाँच उपवास (पंचोला) करके एकासना करें। तत्पश्चात घटते क्रम से चार उपवास करके एकासना करें, तीन उपवास करके एकासना करें, दो उपवास करके एकासना करें और एक उपवास करके एकासना करें।
इस प्रकार यह तप 25 उपवास और 9 पारणे कुल 34 दिनों में पूर्ण होता है।
उद्यापन - इस तप के पूर्ण होने पर जिनप्रतिमा के सामने 14 या 34 की संख्या में मोदक आदि द्रव्य चढ़ायें। • सुविहित परम्परानुसार इस तप के दिनों में अरिहन्त पद का जाप करेंजाप
साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 12 20 16. पंचमहाव्रत तप
व्रत अर्थात प्रतिज्ञा। पाँच कठोर प्रतिज्ञाएँ स्वीकार करना महाव्रत कहलाता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - ये पाँच नियम गृहस्थ के